दूसरा खण्ड] अंन्त का युद्ध ऐसी अमङ्गल बात सुनते ही धृतराष्ट्र को मूर्छा आ गई। जड़ कटे हुए पेड़ की तरह वे जमीन पर गिर पड़े। यह देख महात्मा विदुर और सञ्जय घबरा उठे। उन्होंने बूढ़े राजा को उठाया और भाँति भाँति की बातें कह कर उन्हें दिलासा दिया। धृतराष्ट्र ने सोचा, भावी बड़ी प्रबल होती है । जो बात होने को होती है वह कभी नहीं चूकती। तथापि, यह सब सोच समझ कर भी उनके जी की जलन न गई । जड़ पदार्थ की तरह वे चुपचाप बैठे रहे। इधर दुर्योधन शोक-सागर में एकदम ही डूब गये । हाय कर्ण ! हाय कर्ण! कह कर बड़ी देर तक वे विलाप करते रहे। मारे जाने से बचे हुए राजों के साथ इसी तरह रोते धोते और विलाप करते करते बड़े कष्ट से वे अपने डेरों तक पहुँचे। अनेक युक्तियों से-अनेक तरह की कथा- कहानियों से-कौरव लोगों ने दुर्योधन को दिलासा देने का निरन्तर यन किया। किन्तु, दुर्योधन को कर्ण बहुत प्यारे थे और उन्हीं के ऊपर दुर्योधन का सबसे अधिक भरोसा था। इससे उनकी मृत्यु को सोच सोच कर वे मन ही मन घुलने लगे। किसी भी बात में सुख और शान्ति पाने में वे समर्थ न हुए। इस समय परमसुशील कृपाचार्य ने युद्ध के मैदान में जो इधर उधर नजर दौड़ाई तो बड़ा ही भयङ्कर दृश्य उन्हें देख पड़ा । वह युद्ध का मैदान क्या था काल-भैरव की क्रीड़ा-भूमि थी- उनके खेलने का अखाड़ा था। उन्होंने देखा, कहीं रथ टूटे पड़े हैं; कहीं उनकी धुरी, छतरी, पहिय आदि बिखरे पड़े हैं; कहीं हाथियों और घोड़ों के ढेर के ढेर कटे पड़े हैं; कहीं पैदल सेना के रुण्ड-मुण्डों के ऊँचे ऊँचे टीले से लग रहे हैं; कहीं राजा लोगों की चीजें पड़ी हुई उनके मारे जाने की गवाही दे रही हैं । जो सेना बच गई है वह अर्जुन के पराक्रम को देख कर मारे डर और चिन्ता के पागल की तरह इधर उधर घूम रही है । घायल हाथी और घोड़े बे-तरह चिल्ला रहे हैं, जो घायल नहीं हुए वे भी भयभीत होकर भाग रहे हैं । कौरवों की सेना की यह दुर्दशा देख महात्मा कृपाचार्य को बड़ी दया भाई। वे कुरुराज दुर्योधन के पास जाकर कहने लगे :-- यह भयङ्कर युद्ध होते आज सत्रह दिन हुए । आज तक असंख्य मनुष्यों का संहार हुआ। हवा के जोर से शरद-ऋतु के बादल जैसे, न मालूम कहाँ, उड़ जाते हैं, अर्जुन के बल-विक्रम और प्रभाव से तुम्हारी सेना की भी वही दशा हुई है; वह भी पूरे तौर से छिन्न भिन्न हो गई है। जिस समय अर्जुन ने जयद्रथ पर आक्रमण किया था उस समय द्रोण, कर्ण और कितने ही वीरों को साथ लिय हुए दुःशासन भी उपस्थित थे; हम भी उपस्थित थे; खुद तुम भी उपस्थित थे; किन्तु हम लोगों से कुछ भी न बन पड़ा; तो अब आगे भी हम लोगों से और क्या होने की आशा है ? इससे इस समय तुम्हें अपने बचाव की फिक्र करनी चाहिए। शत्रु अपने से निर्बल हो, तभी युद्ध करना अच्छा होता है। प्रबल शत्र से युद्ध करना मूर्खता है। इस समय हम लोग पाण्डवों की अपेक्षा बहुत निर्बल हो गये हैं। अतएव हमारी सलाह है कि पाण्डवों से सन्धि कर ली जाय। उनसे सन्धि कर लेने ही में हमारी भलाई है। यदि धर्मराज के सामने सिर झुकाने से–यदि उनसे नम्रता दिखाने से हमें राज्य मिल जाय तो कोई हानि नहीं। हम तो उसी में अपना मङ्गल समझते हैं । महाराज ! दीनता के कारण अथवा प्राण-रक्षा करने के इरादे से हम आपको यह सलाह नहीं देते । हम इसी में आपका भला समझते हैं । अतएव आपके हित के लिए हम ऐसा कहते हैं। कृपाचार्य की बात सुन कर दुर्योधन कुछ देर तक सोचते रहे । फिर वे बोले :- हे आचार्य ! महापराक्रमी पाण्डवों की सेना में घुस कर आपने युद्ध किया है, यह हमने अपनी आँखों देखा है । इस समय जो सलाह श्राप दे रहे हैं वह बुरी नहीं। बन्धुओं और हित-चिन्तकों को ऐसी ही सलाह देनी चाहिए। जितनी बातें आपने कहीं सब हमारे हित की हैं। परन्तु मृत्यु-शय्या पर पड़े हुए मनुष्य को जैसे ओषधि अच्छी नहीं लगती वैसे ही आपका हितकर उपदेश मानन को