पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/४३

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पहला खण्ड] पाण्डवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों का बालपन समय जो मैं दिव्य जल तुम्हें देता हूँ उससे स्नान करके अपने घर लौट जाव । तुम्हारे बिना तुम्हारी माता और भाई अत्यन्त दुखी हो रहे हैं। वासुकि की आज्ञा के अनुसार भीमसेन ने दिव्य जल से स्नान किया । फिर सफेद फूलों की माला पहनी । वस्त्र भी सफेद ही धारण किये । स्नान करने से उनके शरीर की सारी थकावट दूर हो गई। इसके अनन्तर नाग लोगों ने उनकी यथेष्ट पूजा की । उनकी पूजा ग्रहण करके भीमसेन ने वहाँ से हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया । बहुत जल्द वे हस्तिनापुर पहुँच गये और माता के पास जाकर बड़े प्रेम से उनको प्रणाम किया । गुरुजनों के भी उन्होंने पैर छुए । पुत्रवत्सला कुन्ती और भाई उनसे लिपट कर मिले । सबको परमानन्द हुआ। कुन्ती ने कहा-भगवान् की हम पर बड़ी कृपा है जो तुम फिर भी हमें देखने को मिल । यह कह कर वह प्रेम के आँसू गिराने लगी। युधिष्ठिर बहुत समझदार थे । भीमसेन से सब कच्चा हाल सुन कर वे बोले : भाई ! तुम्हें हम सावधान करते हैं । यह बात किसी से कदापि न कहना । मन की मन ही में रखना । आज से हम लोगों को परस्पर एक दूसरे की रक्षा के लिए बहुत सँभल कर चलना होगा। इस समय से दुर्योधन और उसके साथी संघाती अनेक प्रकार के जाल फरेब करके और भाँति भाँति की मिथ्या बातें बना कर गजा धृतराष्ट्र का मन पाण्डवों की तरफ से फेरने की चेष्टा करने लगे। किस तरह पाण्डवों का अनिष्ट हो, इसी बात के सोचन में वे दिन रात रहने लगे। पाण्डवों से उन लोगों की यह दुष्टता छिपी न थी। किन्तु महात्मा विदुर की सलाह से उन्होंने अपने मन की बात किसी से नहीं कही। एक समय महाराज शान्तनु के एक संवक ने शिकार खेलते समय वन में पड़े हुए एक बालक और बालिका को देखा। उसके पास धनुप, बाण और मृगछाला पड़ी देख कर उसने अनुमान किया कि धनुर्वेद जाननेवाले किसी ब्राह्मण की यह सन्तान है। शान्तनु ने कृपा करके इस बालक और बालिका का पालन अपनी ही सन्तान की तरह किया। इसी से इनका नाम कृप और कृपी हुआ । यथार्थ में यह महर्षि शरद्वान् की सन्तान थे । तप भङ्ग होने के डर से उन्होंने इनका वन में छोड़ दिया था। जब उन्होंने सुना कि राजा के घर में इनका अच्छी तरह पालन-पोपण हो रहा है तब वे वहाँ आये और पुत्र कृप को उत्तम गति से शस्त्र-विद्या सिखलाई । धीरे-धीरे कृप अस्त्र-शस्त्र चलाने में बड़े प्रवीण हो गये । इससे उन्हें आचार्य की पदवी मिली । कृपी का विवाह प्रसिद्ध महात्मा द्रोणाचार्य के साथ हुआ। इन्हीं आचार्य के पास पाण्डव, धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि, तथा और अनेक देशों के राजकुमार अस्त्र-विद्या सीखने लगे। जब ये लोग अस्त्र-शस्त्र चलाने की विद्या थोड़ी बहुत प्राप्त कर चुके तब भीष्म, उन्हें ऊँचे दरजे की शिक्षा देने के इरादे से, एक ऐसा गरु हूँढ़ने लगे जो बाण चलाने में सबसे अधिक कुशल हो, जिस अस्त्रविद्या साङ्गोपाङ्ग आती हो, और जो महा-पराक्रमी और बली हो। ___एक दिन सब राजकुमार एकत्र होकर खेलने के लिए नगर से बाहर गये। वहाँ खेलते खेलते उनके हाथ से एक गेंद पास के कुर में जा गिग। कुआँ सूखा था; उसमें पानी न था। गेंद को कुर से निकालने का बहुत कुछ यत्र करने पर भी राजकुमार उसे न निकाल सके। इससे वे मन ही मन बहुत दुखी हुए। उन्हे बड़ी लज्जा लगी। परस्पर वे एक दूसरे का मुंह देखने लगे। इसी समय उन्होंने देखा कि दुबला पतला कृष्णवर्ण का एक ब्राह्मण वहीं से जा रहा है। राजकुमारों ने उसे घेर लिया और गेंद को कुएँ से निकालने के लिए उससे मदद माँगने लगे। ब्राह्मण देवता मुसकरा कर बोले : तुम्हारे क्षत्रियपन को धिक्कार है ! भरतकुल में जन्म लेकर भी तुम लोग इस साधारण कुएँ से गेंद तक नहीं निकाल सकते । छिः ! यह कह कर वे फिर बोले :