पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२०२

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सत्त श: t - कम से P A वना स्वयं आविद्वान् लरी व्यभिचारादि पाप कर्म कर और दुखी भी हो सकता है ! ' जैसे ये काम ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव से विरुद्ध हैं। तो जा तुम्हारा कहना हे के वह सब कुछ कर सकता है यह कभी नहीं घट सकता इसलिये सर्वशक्किमान् शब्द का अर्थ जो हमने कहा वही ठीक है । ( प्रश्न ) परमेश्वर सादि है व अनादि १ ( त्तर) अनादि अर्थात् जिसका आदि कोई कारण वा समय न हो उसको अनादि कहते हैं इत्यादि सब अर्थ प्रथम समुल्लास में कर दिया है देख लीजिय ( प्रश्न ) पर मेश्वर क्या चाहता है ? ( उत्तर ) सव की भलाई और सत्र के लिये सुख चाहता है परन्तु स्वतन्त्रता के साथ किसी को बिना पाप किये पराधीन नहीं करता (प्रश्न) परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना करनी चाहिये वा नहीं ? ( उत्तर ) करनी है चाहिये ।(प्रश्न , क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर आपना नियम छोड़ स्तुति प्रार्थना करनेवाले का पाप छुड़ा देगा ? ( प्रश्न ) तो फिर स्तुति प्रार्थना ? उत्तर ) नही ( क्यों करना १ ( उत्तर ) उनके करने का फल अन्य ही है ( प्रश्न ) क्या है ? ( उत्तर ) स्तुति से ईश्वर में प्रीति उसके गुण कर्म स्वभाव से अपने गुण कई स्वभाव का सुधारना प्रार्थना से निरभि सनता उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परनहा से मेल और उसका साक्षात्कार होना1 प्रश्न ) इन को करके सर स्पष्ट , ( प ) जैसे स पगाच्क्रनिकाय मंत्रण ५स्नावि99शुद्धमपापविद्धम् । कविनीषी स्वयम्भूकथातथ्यूतोथन परिभः व्यदध उछाश्तैन्य: समiभ्यः ॥ यजु० ॥ अ० ४० ' म० ८ ॥ ( ईश्वर की स्तुति ) वह परमात्मा त्व में व्यापक, शीकारी और अनन्त वलवान! जो , सव, सत्र का अन्तर्यामीसर्वोपरि विराजमानसनातन, स्वयंसिद्धपर अपनी जीवरूप सनातन नादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अथा वधि रात वेट्टार यह सगुण'गुण से परमेश्वर दै स्तुति अर्थात् जिस २ की सहित स्तुति करना व सगुण( अक्राय ) अर्थात् वर्षा भी शरीर धारण व 1 लेता जिसमें छिद्र नहीं होता आदि के बन्धन में नड़ नहीं आता और कभी ' यपाचरण नहीं करता जिसमें छेश टु व अज्ञान कभी नहीं होता इत्यादि जिस इंपादि गए से पृथ मानकर परमेश्वर की स्तुति करना है वह निर्गण स्टुति है इस का पोत पर है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वे मु कर्म स्ाब अपने भी करना 1 जन्म नहीं