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पृष्ठ:सप्तसरोज.djvu/१०५

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उपदेश
 

शुमार जिलेके निहायत होशियार, कारगुजार, दयानतदार सब इन्सपेक्टरोंमें है। फर्जी डाके डलवाता हूँ। फर्जी मुल्जिम पकड़ता हूं। मगर सजाए असली दिलवाता हूँ। शहादतें ऐसी गढाता हूँ कि कैसा ही वैरिस्टरका चचा क्यों न हो, उनमें गिरफ्तार नहीं कर सकता।

इतने में शहर से शर्माजी की डाक आ गयी। उठ खडे हुए और बोले, दारोगाजी, आपकी बातें बडी मजेदार होती हैं। अब इजाजत दीजिये। डाक आ गई है। जरा उसे देखना है।

चादनी रात थी। शर्माजी खुली छतपर लेटे हुए एक समाचार पत्र पढ़नेमें मग्न थे। अकस्मात कुछ शोर-गुल सुनकर नीचे की तरफ झांका तो क्या देखते हैं कि गांवके चारो तरफसे कान्सटेबलो के साथ किसान चले आ रहे हैं? बहुतसे आदमी खलिहानकी तरफसे बड़बड़ाते आते थे। बीच बीचमें सिपाहियों की डांट-फटकार की आवाजें भी कानो मे आती थीं। यह सब आदमी बगलेके सामने सहनमें बैठते जाते थे। कहीं-कहीं स्त्रियों का आर्त्तनाद भी सुनाई देता था। शर्माजी हैरान थे कि मामला क्या है। इतनेमें दारोगाजीकी भयंकर गरज सुनाई पड़ी—हम एक न मानेगे, सब लोगों को थाने चलना होगा।

फिर सन्नाटा हो गया। मालूम होता था कि आदमियो में काना फूसी हो रही है। बीच बीच मुख्तार साहय और सिपाहियो के हृदय विदारक शब्द आकाश में गूंज उठते। फिर ऐसा जान पड़ा कि किसीपर मार पड़ रही है। शर्माजीसे भय न रहा