बुढ़िया न जाने कबतक जियेगी। दो तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया है मानो मोल ले लिया है। बघारी दालके बिना रोटियां नहीं उतरतीं। जितना रुपया इसके पेट में झोक चुके उतनेसे तो अबतक एक गांव मोल ले लेते।
कुछ दिन खाला-जानने सुना और सहा, पर जब न सहा गया तब जुम्मनसे शिकायत की। जुम्मनने स्थानीय कर्मचारी——गृह स्वामिनीके प्रबन्धमें दखल देना उचित न समझा। कुछ दिन तक और योंही रो-धोकर काम चलता रहा। अन्तमें एक दिन खालाने जुम्मनसे कहा, बेटा! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपये दे दिया करो, मैं अपना अलग पका-खा लूगी।
जुम्मनने धृष्टताके साथ उत्तर दिया, रुपये क्या यहाँ फलते हैं? खालाने नम्रतासे कहा, मुझे कुछ रूपा-सूखा चाहिये भी कि नहीं? जुम्मनने गम्भीर स्वरसे जवाब दिया, तो कोई यह थोड़े समझता है कि मौतसे लड़कर आई हो?
खाला विगड़ गई। उन्होंने पंचायत करनेकी धमकी दी। जुम्मन हंसे, जिस तरह कोई शिकारी हिरनको जालकी तरफ जाते देखकर मन-ही-मन हंसता है। वे बोले, हां जरूर पंचायत करो। फैसला हो जाय। मुझे भी यह रात दिनकी खटपट पसन्द नहीं।
पंचायतमें किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मनको कुछ भी सन्देह न था। आस-पासके गांवमें ऐसा कौन था जो उनके अनुग्रहोंका ऋणी न हो? ऐसा कौन था जो उनको शत्रु बनानेका साहस कर सके? किसमें इतना बल था जो उनका