कैसी कैसी बातें कर रहा था। इतनी ही देर में ऐसी काया-पलट हो गई कि मेरी जड़ खोदने पर तुला हुआ है। न मालुम कब की कसर यह निकाल रहा है? क्या इतने दिनों की दोस्ती कुछ भी काम न आयेगी?
जुम्मन शेख इसी सङ्कल्प विकल्प में पडे हुए ये कि इतने में अलगू ने फैसला सुनाया,—
जुम्मन शेख! पञ्चों ने इस मामले पर विचार दिया। उन्हें यह नीति-संगत मालूम होता है कि खालाजान को माहवार खर्च दिया जाय। हमारा विचार है कि खाला की जायदाद से इतना मुनाफा अवश्य होता है कि माहवार खर्च दिया जा सके। बस, यही हमारा फैसला है। अगर जुम्मन को खर्च देना मंजूर न हो तो हिब्बानामा रद्द समझा जाय।
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यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे मे आ गये। जो अपना मित्र हो वह शत्रुका सा व्यवहार करे और गले पर छुरी फेरे। इसे समय के हेर फेर के सिवाय और क्या कहे? जिसपर पूरा भरोसा था उसने समय पड़ने पर धोखा दिया। ऐसे ही अवसरो पर झूठे-सच्चे मित्रों की परीक्षा हो जाती है। यही कलियुग की दोस्ती है। अगर लोग ऐसे कपटी, धोखेबाज न होते तो देश में आपत्तियों का प्रकोप क्यों होता? यह हैजा, प्लेग आदि व्याधिया दुष्कर्मो के दण्ड हें।
मगर रामधन मिश्र और अन्य पञ्च अलगू चौधरीकी इस नीति परायणता को प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे,