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सप्तसरोज
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अफसर उनके इलाके शिकार खेलने आते और उनके मेहमान होते। बारहों मास सदाव्रत चलता था।

मुन्शीजीने पूछा, गाडिया कहाँ जायेंगी? उत्तर मिला, कानपुर। लेकिन इस प्रश्न पर कि इसमे है क्या, फिर सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का सन्देह और भी बढा। कुछ देरतक उत्तर की बाट देखकर वह जोरसे बोले, क्या तुम सब गूंगे हो गये हो। हम पूछते हैं, इनमें क्या लदा है?

जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोडे को एक गाडी से मिलाकर बोरेको टटोला । भ्रम दूर हो गया। यह नमकके ढेले थे।

पण्डित अलोपीदीन अपने सजीले रथपर सवार, कुछ सोते कुछ जागते चले आते थे। अचानक कई गाडीवानोंने घबराये हुए आकर जगाया और बोले—महाराज! दारोगाने गाड़ियां रोक दी हैं और घाटपर खड़े आपको बुलाते है ।

पण्डित अलोपीदीनका लक्ष्मीजीपर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसारका तो कहना ही क्या,स्वर्ग में भी लक्ष्मीका ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था और नीति सब लक्ष्मी ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे नचाती है। लेटे-ही-लेटे गर्वमे बोले,चलो हम आते हैं। यह कह पण्डितजीने घड़ी निश्चिन्तता से पानके बीड़े लगाकर खाये। फिर लिहाफ ओढ़े हुए दारोगाके पास आकर बोले, बाबूजी आशीर्वाद। कहिये, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ कि गाड़ियां