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उपदेश
 

के कड़वे तेलसे उसकी सेवा किया करते, पर वह नीच स्वभाव अनुसार उन्हें काटनेसे न चूकता था। बेचारेको सालके ६ महीने पैरोंमेें मरहम लगानी पड़ती। बहुधा नंगे पांव कचहरी जाते, पर कंजूस कहलानेके भय से जूतोंको हाथमें ले जाते। जिस ग्राममे शर्माजीकी जमीदारी थी, उसमें कुछ थोडासा हिस्सा उनका भी था। इस नातेसे कभी-कभी उनके पास आया करते थे। हां, तातीलके दिनोंमे गांव चले जाते। शर्माजीको उनका आकर बैठना नागवार मालूम होता, विशेषकर जब वह फैशनेवुल मनुष्योकी उपस्थितिमे आ जाते। मुन्शीजी भी कुछ ऐसी स्थूल दृष्टिके पुरुष थे कि उन्हें अपना अनमिलापन बिलकुल दिखाई न देता। सबसे बड़ी आपत्ति यह थी कि वे बराबर कुर्सीपर डट जाते। मानो हंसोंमे कौवा। उस समय मित्रगण अड़्गरेजीमे बातें करने लगते और बाबूलालको क्षुद्रबुद्धि, झक्की, बौड़म, बुध्दू आदि उपाधियों का पात्र बनाते। कभी कभी उनकी हंसी उड़ाते थे। शर्माजीमें इतनी सज्जनता अवश्य थी कि वे अपने विचारहीन मित्रको यथाशक्ति निरादरसे बचाते थे। यथार्थमे बाबूलालकी शर्माजीपर सच्ची भक्ति थी। एक तो वह बी० ए० पास थे, जिसका अर्थ यह होता है कि वह सरस्वती देवीके वरपुत्र थे। दूसरे वह देशभक्त थे। बाबूलाल जैसे विद्याविहीन मनुष्यका ऐसे रत्नको आदरणीय समझना कुछ अस्वाभाविक न था।

एक बार प्रयागमें प्लेगका प्रकोप हुआ। शहरके रईस लोग निकल भागे। बेचारे गरीब चूहों की भाँति पटापट मरने लगे।