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उपदेश
 

शर्माजीका मस्तिष्क कृषि सम्बन्धी ज्ञानका भाण्डार था। हालैंड और डेनमार्क की वैज्ञानिक खेती, उसकी उपजका परिमाण और वहांके को-आपरेटिव बैंक आदि गहन विषय उनकी जिह्वापर थे। पर इन गवारों को क्या खबर? यह सब उन्हे झुककर पालागन अवश्य करते और कतराकर निकल जाते, जैसे कोई मरकहे चलसे बचे। यह निश्चय करना कठिन है कि शर्माजी की उनसे वार्तालाप करने की इच्छामे क्या रहस्य था, सच्ची सहानुभूति वा अपनी सर्वज्ञताका प्रदर्शन।

शर्माजीकी डाक शहर से लाने और ले जाने के लिये दो आदमी प्रतिदिन भेजे जाते। वह लूईकूने की जल चिकित्साके भक्त थे। मेवोंका अधिक सेवन करते थे। एक आदमी इस काम के लिये भी दौडाया जाता था। शर्माजीने अपने मुख्तारसे सख्त ताकीद कर दी थी कि किसी से मुफ्त काम न लिया जाय, तथापि शर्माजी को यह देखकर आश्चर्य होता था कि कोई इन कामोंके लिये प्रसन्नता से नहीं जाता। प्रतिदिन बारी-बारीमें आदमी भेजे‌ जाते थे। वह इसे भी बेगार समझते थे। मुख्तार साहबको प्राय: कठोरतासे काम लेना पडता था। शर्माजी किसानो की इस शिथिलता को मुटमरदीके सिवा और क्या समझते। कभी-कभी वह स्वयं क्रोध से भरे हुए अपने शान्ति कुटीर से निकल आते और अपनी तीव्र वाक्य शक्ति का चमत्कार दिखाने लगते थे। शर्माजी के घोड़े के लिये घास-चारेका प्रबन्ध भी कुछ कम कष्टदायक न था। रोज सन्ध्या समय दांट डपट और रोनेचिलाने की आवाज उन्हें सुनाई देती थी। एक कोलाहल-सा मच जाता था। पर यह