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समर-यात्रा
 

'बहत ही उत्तम, टिकट के रुपये कांग्रेस को दे दो।'

'यह तो टेढ़ी शर्त है । लेकिन मंजूर !'

'कल रसीद मुझे दिखा देना।'

'तुम्हें मुझ पर इतना विश्वास भी नहीं ?'

आनन्द होस्टल चला। जरा देर बाद रूपमणि स्वराज्य-भवन की ओर चली।

( २ )

रूपमणि स्वराज्य-भवन पहुँची, तो स्वयंसेवकों का एक दल विलायती कपड़े के गोदामों को पिकेट करने जा रहा था। विशंभर इस दल में न था।

दूसरा दल शराब की दुकानों पर जाने को तैयार खड़ा था। विशम्भर इसमें भी न था।

रूपमणि ने मन्त्री के पास जाकर कहा-आप बता सकते हैं विशंभरनाथ कहां हैं ?

मन्त्री ने पूछा-वही, जो आज भरती हुए हैं ?

'जी हां, वही ।'

'बडा दिलेर आदमी है । देहातों को तैयार करने का काम लिया है। स्टेशन पहुँच गया होगा। सात बजे की गाड़ी से जा रहा है।'

'तो अभी स्टेशन पर होंगे ?'

मन्त्री ने घड़ी पर नज़र डालकर जवाब दिया-हाँ, अभी तो शायद स्टेशन पर मिल जाय ।

रूपमणि ने बाहर निकलकर साइकिल तेज की। स्टेशन पर पहुँची तो देखा कि विशंभर प्लेट-फार्म पर खड़ा है।

रूपमणि को देखते ही लपककर उसके पास आया और बोला--तुम यहाँ कैसे आई ? आज आनन्द से तुम्हारी मुलाक़ात हुई थी ?

रूपमणि ने उसे सिर से पांव तक देखकर कहा-यह तुमने क्या सूरत बना रखी है ? क्या पांव में जता पहनना भी देशद्रोह है ?

विशंभर ने डरते-डरते पूछा-आनन्द बाबू ने तुमसे कुछ कहा नहीं ?