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समर-यात्रा
 

रूपमणि ने कुरसी पर बैठकर कहा--- तुम्हें भी तो किताबों से छुट्टी नहीं मिलती। आज की कुछ ताज़ी ख़बर नहीं मिली ? स्वराज्य-भवन में रोज़-रोज़ का हाल मालूम हो जाता है।

आनन्द ने दार्शनिक उदासीनता से कहा---विशंभर ने तो सुना देहातों में खूब शोर-गुल मचा रखा है। जो काम उसके लायक़ था, वह मिल गया। यहां उसकी ज़बान बन्द रहती थी। वहांँ देहातियों में खूब गरजता होगा ; मगर आदमी दिलेर है।

रूपमणि ने उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा, जो कह रही थीं, तुम्हारे लिए यह चर्चा अनधिकार चेष्टा है, और बोली---आदमी में अगर यह गुण है तो फिर उसके सारे अवगुण मिट जाते हैं। तुम्हें कांग्रेस बुलेटिन पढ़ने की क्यों फुरसत मिलती होगी। विशंभर ने देहातों में ऐसी जाग्रति फैला दी है कि विलायती का एक सूत भी नहीं बिकने पाता और न नशे की दूकानों पर कोई जाता है। और मज़ा यह है कि पिकेटिंग करने की जरूरत नहीं पड़ती । अब तो वह पंचायतें खोल रहे हैं ।

आनन्द ने उपेक्षा-भाव से कहा--- तो समझ लो, अब उनके चलने के दिन भी आ गये हैं।

रूपमणि ने जोश से कहा--इतना करके जाना बहुत सस्ता नहीं है । कल तो किसानों का एक बहुत बड़ा जलसा होनेवाला था। पूरे परगने के लोग जमा हुए होंगे। सुना है, आजकल देहातों से कोई मुकदमा ही नहीं आता। वकीलों की नानी मरी जा रही है।

आनन्द ने कड़वेपन से कहा--- यही तो स्वराज्य का मज़ा है कि जमींदार, वकील और व्यापारी सब मरें। बस, केवल मज़दूर और किसान रह जायँ।

रूपमणि ने समझ लिया, आज आनन्द तुलकर पाया है। उसने भी जैसे आस्तीन चढाते हुए कहा---तो तुम क्या चाहते हो कि ज़मींदार और वकील और व्यापारी गरीबों को चूस-चूसकर मोटे होते चले जायँ और जिन सामाजिक व्यवस्थाओं में ऐसा महान् अन्याय हो रहा है, उनके ख़िलाफ़