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पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/४१

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पत्नी से पति
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सेठ––बात क्या हुई, उसने आँखें दिखाईं। मैंने चाँटा जमाया और इस्तीफ़ा देकर चला आया।

गोदावरी––इस्तीफ़ा देने की क्या जल्दी थी?

सेठ––और क्या सिर के बाल नुचवाता? तुम्हारा यही हाल है, तो आज नहीं कल अलग होना ही पड़ता।

गोदावरी––ख़ैर जो हुआ अच्छा ही हुआ। आज से तुम भी कांग्रेस में शरीक हो जाओ।

सेठ ने ओठ चबाकर कहा––लजाओगी तो नहीं, ऊपर से घाव पर नमक छिड़कती हो।

गोदावरी––लजाऊँ क्या, मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारी बेड़ियाँ कट गईं।

सेठ––आखिर कुछ सोचा है, काम कैसे चलेगा?

गोदावरी––सब सोच लिया है, मैं चलाकर दिखा दूँगी। हाँ, मैं जो कुछ कहूँ, वह तुम किये जाना। अब तक मैं तुम्हारे इशारों पर चलती थी, अबसे तुम मेरे इशारे पर चलना। मैं तुमसे किसी बात की शिकायत न करती थी; तुम जो कुछ खिलाते थे, खाती थी, जो कुछ पहनाते थे, पहनती थी। महल में रखते, महल में रहती। झोंपड़ी में रखते, झोपड़ी में रहती। उसी तरह तुम भी रहना। जो काम करने को कहूँ, वह करना। फिर देखूँ, कैसे काम नहीं चलता। बड़प्पन सूट-बूट और ठाट-बाट में नहीं है। जिसकी आत्मा पवित्र हो, वही ऊँचा है। आज तक तुम मेरे पति थे, आज से मैं तुम्हारी पति हूँ।

सेठजी उसकी ओर स्नेह की आँखों से देखकर हँस पड़े।