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पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/८४

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समर-यात्रा
 

टूटे हुए सिर हो। उनकी विजय का सबसे उज्ज्वल चिह्न यह था कि उन्होंने जनता की सहानुभति प्राप्त कर ली थी। वही लोग, जो पहले उन पर हँसते थे, उनका धैर्य और साहस देखकर उनकी सहायता के लिए निकल पड़े थे। मनोवृत्ति का यह परिवर्तन हो हमारी असली विजय है। हमें किसी से लड़ाई करने की ज़रूरत नहीं,हमारा उद्देश्य केवल जनता की सहानुभति प्राप्त करना है,उसकी मनोवृत्तियों को बदल देना है। जिस दिन हम इस लक्ष्य पर पहुँच जायेंगे,उसी दिन स्वराज्य-सूर्य उदय होगा।

तीन दिन गुज़र गये थे। बीरबल सिंह अपने कमरे में बैठे चाय पी रहे थे और उनकी पत्नी मिटुन बाई शिशु को गोद में लिये सामने खड़ी थीं। बीरबल सिंह ने कहा-मैं क्या करता उस वक्त। पीछे डी० एस० पी० खड़ा था। अगर उन्हें रास्ता दे देता, तो अपनी जान मुसीबत में फँसती।

मिट्रन बाई ने सिर हिलाकर कहा-तुम कम से कम इतना तो कर ही सकते थे कि उन पर डण्डे न चलाने देते। तुम्हारा काम आदमियों पर डण्डे चलाना है ? तुम ज़्यादा से ज़्यादा उन्हें रोक सकते थे। कल को तुम्हें अपराधियों को बेत लगाने का काम दिया जाय,तो शायद तुम्हें बड़ा आनन्द आयेगा, क्यों ?

बीरबल सिंह ने खिसियाकर कहा -- तुम तो बात नहीं समझनी हो!

मिट्रन बाई--मैं खूब समझती हूँ। डी० एस० पी० पीछे खड़ा था। तुमने सोचा होगा,ऐसी कारगुज़ारी दिखाने का अवसर शायद फिर कभी मिले या न मिले। क्या तुम समझते हो,उस दल में कोई भला आदमी न था ? उसमें कितने ही श्रादमी ऐसे थे,जो तुम्हारे जैसों को नौकर रख ..सकते हैं। विद्या में तो शायद अधिकांश तुमसे बढ़े हुए होंगे;मगर तुम उन पर डण्डे चला रहे थे और उन्हें घोड़े से कुचल रहे थे, वाह री जामर्दी !

बीरबल ने बेहयाई की हँसी के साथ कहा--डी० एस० पी० ने मेरा नाम नोट कर लिया है। सच !

दारोगा ने समझा था,यह सूचना देकर वह मिट्ठन बाई को खुश कर देंगे। सजनता और भलमनसी आदि ऊपर की बातें हैं, दिल से नहीं, ज़बान