पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/४१

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) हो गये है, और जिनके पास अब भी काम है, उनकी मजदूरी घट गई है अवश्यम्भावी और उनकी सुख-सुविधायें उनसे छीन ली गई है। यह अवश्यम्भावी परिणाम है उस आर्थिक ढाँचे का जिसका आधार शोषण है, और जिसका एकमात्र उद्देश्य है लाभ कमाना । आर्थिक संकट के विषम होने के साथ-माथ राजनैतिक संबट भी विधम होता जा रहा है। पालियामेण्टीय जनतन्त्र जो पूँजीवादी अर्थ- ध्यवस्था का ही राजनैतिक रूप है; ऐसे ही संकट में फँसा हुआ है। प्रतिनियामक संस्थाएँ ढेर होती जा रही हैं, और उनकी इस संक्ट से पार ले जा सकने की योग्यता पर सन्देह किये जा रहे है। लोगों को आँखों के आगे में माया का परदा हटता जा रहा है, और जहाँ पहले विश्वास और मानसिक शान्ति थी वहाँ अब असन्तोष और अविश्वास है । जिन सामाजिक संस्थाओ को अब तक पावन माना जाता था, वे पालो- चनात्मक दष्टि में देखी जा रही है, और शनै शनैः उनका प्रभुत्व खोखला होता जा रहा है। कुछ राज्यो मे तो जनतन्त्र का दिखावा भी समा करके फासिज्म के रूप में नंगी निरंकुशता को अभिषिक्त किया गया है। अन्य राज्य ऊपर में जनतन्त्रात्मक रहते हुए भी व्यवहार में तानाशाही वर्त रहे हैं । पार्लियामेण्ट्री सरकारे डांवाडोल हो गई है, और राजनैतिक दलवन्दियाँ बढ़ती जा रही हैं, जिससे उनका कार्य अधिकाधिक कठिन हो गया है। यहाँ तक कि पार्लियामेण्टों की जननी ब्रिटिश पार्लियामेण्ट भो वैधानिक संकट में नहीं बच पाई है और प्रजातन्त्री इशलान्ड में भी एक 'मासिस्ट पाटी का जन्म हो गया है। पतनोन्मुख पूँजीवादी समाज आज अपने भीतर से उत्पन्न होने वाली नदोन व्यवस्था के विरुद्ध जीवन-मृत्यु के संग्राम में संलग्न है । वह श्राने वाले अन्त से बचने के लिए अनेक प्रकार के प्रयोग कर रहा है और अनेक हथकंडे काम में ला रहा है। भागामी घोर संघर्ष की तैयारी में