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पूँजीवाद मे निजी पूंजी



अपनी धामदनी में से ६ रुपया वार्षिक थापको दे दिया करंगा । लोग सममगे कि आपने सौ रपये किसी कारवार में लगा दिये, जिनका मूल्य सौ रुपया ही रहेगा और इस प्रकार यापने देश की पूंजी में सौ रुपये की वृद्धि की। दूसरी तरफ यह कहा जायगा कि उस धादमी को, जिसे थापने रपया दिया, पूंजी मिल गई । किन्तु इस लेन-देन का असली मतलव इतना ही होगा कि पापने अपने मौ रुपये सा-पका जाने के लिए दूसरे आदमी को दे दिये और आपको यह अधिकार मिल गया कि देश की चाय में से पाप प्रति वर्ष बिना कोई श्रम किये ६ः रुपये ले लिया करें। अतः न तो हम मशीन को पूँजी मानकर चल सकते हैं और न उस रुपये को जोधपया मकदा के हिसाब से प्राप्त होता है। यदि कोई सरकार इस तरह की पूंजी को पूंजी मानकर कर लगाने की कोशिश करे तो उसे निराश ही होना पड़ेगा । कारण, वह कर कभी वसूल न हो सकेगा।

जो पूंजी हम लगा चुकते हैं या खर्च कर चुकते हैं, यह पूंजी पूँजी नहीं रहती है, क्योंकि यह नहीं हो सकता कि रोटी खाई न जाय और पेट भर जाए। जमीन, जायदाद आदि से हम व्यक्तिशः समय पर लाभ उठा सकते हैं, क्योंकि हम उसको बेच सकते हैं। किन्तु यदि हम उस पर कर लगा कर सार्वजनिक लाभ उठाना चाहें तो हम सफल नहीं हो सकते । उस हालत में सभी को अपनी-अपनी जायदादों को बेचने की ज़रूरत पैदा हो जायगी और उनका बिकना मुश्किल हो जायगा। रेलो, कारखानों आदि में जो करोड़ों रुपया लग चुका है, वह हिसाव की पोथियों में दर्ज भले ही रहे, किन्तु हम उसे वसूल नहीं कर सकते हैं। उसके यावजूद भी देश तो निर्धन ही रहेगा।

पूँजीवादी संसार में कपड़े-बाज़ार की तरह रुपया-बाज़ार का भी .. अस्तित्व होता है। इस बाज़ार में रुपये की खरीद-निजी पूँजी फरोख्त होती है और तेज़ी-मन्दी का हमेशा ज़ोर रहता और मूद है। इस बाज़ार के खिलाडी कभी बहुत प्रसन्न और कमी बहुत चिन्न नजर आते है। इसके तरीकों को समझना ज़रा