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पूँजीवाद में निजी पूँजी

पूंजीवाद में निजी जी १४३ गरीयों से रुपया वापस मिलने की उतनी निश्चिन्तता नहीं होती। बैंकों से तो सरकारें, कारखानेदार और बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ प्रासानी से रुपया ले सकती है, क्योंकि उनका रुपया इवने की आशंका नहीं होती। फिर बैंकों को दस-दस बीस-बीस रुपयों पर मासिक सूद उगाहने के बजाय हज़ारों और लाखों रुपयों पर घमाही या वार्पिक सूद वसूल करने में कम खर्च और सुविधा होती है, इसलिए वे मालदारों के साथ ही लेन-देन करना पसन्द करते हैं। शहरों में भाजकल व्यवसायी लोग खाम-सास तरह के बड़े-बडे व्यवसाय जारी करने के लिए कम्पनियाँ कायम करते हैं और उनके लिए लोगों से रपया उधार लेते हैं। किन्तु यहां उधार लेने निजीपूजी और का तरीका साधारण तरीके से थोड़ा मित्र होता है ? मम्मिलित पंजी जो लोग इन कम्पनियों को रुपया देते हैं. वे हिस्सेदार वाली कम्पनियाँ कहलाते हैं। उनको यह श्राश्वासन दिया जाता है कि व्यवसाय जारी होने पर वह उनके नियंत्रण में रहेगा और जो मुनाफा होगा वह कर्ज की मात्रा के अनुसार उनमें बाँट दिया जायगा । यदि कम्पनी को मुनाफा न हो तो लोगों का रुपया दब जाता है, किन्तु कम्पनी के घाटे की जिम्मेदारी हिस्सेदारों पर नहीं होती है। इसे हिस्सेदारों की मर्यादित जिम्मेदारी ( Limited inbility ) कहते हैं । कम्पनियों में कुछ हिस्से ऐसे भी होते हैं जिन पर सूद की दर छः या सात रुपया सैकड़ा निश्चित कर दी जाती है। साधारण कर्जदाताओं को कुछ भी मिलने के पहले इन हिस्सों का सूद चुकाया जाता है, किन्तु इस हालत में यदि कम्पनी को अधिक मुनाफा हो तो ये हिस्सेदार उसका लाभ नहीं पा सकते । ये हिस्से 'डिवेंचर' अर्थात् विशेष प्रकार के शेयर कहलाते हैं। कम्पनियों के शेयर (हिस्से) उनके प्रचलित मूल्य के अनुसार बाजार में बेचे जा सकते हैं और नकद रुपया प्राप्त किया जा सकता है। जिस जगह ये शेयर खरीदे और बेचे जाते हैं उसको 'स्टाक एक्सचेंज' कहते है और वहाँ काम करने वालों को 'शेयर दलाल' और