में अन्न,वस्त्र आदि,जो भी वह चाहे,खरीदने का कानूनी हक मिल जाता है। हम रुपये को खा नहीं सकते और न पी या पहिन ही सकते हैं। अतः वास्तविक सम्पत्ति तो वे चीजें ही हैं जिन पर हम निर्वाह करते हैं और जो हर साल पैदा होती है। यदि यह असली सम्पत्ति हर साल पैदा न की जाय तो कोई भी जाति जीवित न रह सकेंगी। इसलिए यह आवश्यक है कि समस्त जाति,जब तक वह जीवित है,कमा कर खावे। इस प्रकार जो कुछ भी कमाया जाय उसे सब लोगों में इस तरह से बांट देना चाहिए कि हर एक को उसका न्यायानुमोदित भाग प्राप्त हो जाय। यही साम्यवाद है। किन्तु सवाल तो यह है कि न्यायानुसार उसमें से हर एक को कितना धन मिले और किन शती पर उसको उस पर अधिकार रखने दिया जाय? यह नियम बनाया जा सकता है कि जो काम न करे,उसको खाने को भी न मिले। किन्तु उस दशा में बच्चों का क्या हो? यदि उनको न खिलाया जाय तो दुनिया में मनुष्य-जाति नष्ट ही हो जायगी;अतः इस नियम से काम न चलेगा।
एक विधवा है जो कड़ी मेहनत करती है और जिसके छः बच्चे हैं। वह अपना और उनका आधा पेट मुश्किल से भर पाती है। किन्तु दूसरी ओर एक आलसी और इन्द्रियासक्त धनी युवक है जो खान-पान,सवारी-सिनेमा और विलासिता में एक दिन में ही इतना खर्च कर डालता है जितना कि छः मज़दूर परिवारों के लिए एक महीने तक कार्की हो सकता है। क्या यह सम्पत्ति के विभाजन का बुद्धि-संगत तरीका है? क्या यह अधिक अच्छा न होगा कि विधवा को अधिक और इन्द्रियासक्त युवक को कम दिया जाय! इन प्रश्नों का निर्णय खुद नहीं हो जाता। कानून के द्वारा हमको उनका फैसला करना पड़ेगा। यदि विधवा युवक के हिस्से का कोई पदार्थ ले ले तो पुलिस उसको जेलखाने भेज देगी और उसके बच्चे भूखे मारे-मारे फिरेंगे या किसी अनाथालय की शरण लेंगे। यह क्यों होगा? इसलिए कि वर्तमान कानून के अनुसार, उसके हिस्से में अधिक सम्पत्ति नहीं आई। अधिकतर लोगों को जब यह मालूम हो जाता है तो वे सोचते हैं कि कानून बदला जाना चाहिए।