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रूसी साम्यवाद


का अंग नहीं है और काम और मजदूरी का विभाजन मानवी योग्यता में विद्यमान स्वाभाविक विपमताओं का रूपये के रूप में मूल्य आँकना है। किन्तु बात ऐसी नहीं है। इसे से विशेष मेहनत करने की प्रेरणा मान समझना चाहिए।

असलियत यह है कि जन्मजात योग्यता, कद, वजन, रूप-रंग आदि में कितना ही अन्तर क्यों न हो, सब लोगों के खान-पान और निवास के लिए बराबर रकम की जरूरत पड़ती है। सब लोगों को समान सतह पर लाने के लिए पहला कदम यह उठाया जाना चाहिए कि हर व्यक्ति के लिए एक रक्कम निश्चित की जाय । जहाँ तक मामूली मजदूरों का ताल्लुक्क है, सभी देशों में इस समय भी समान मजदूरी निश्चित है। यदि साम्यवादी सरकार हरएक की आमदनी उस हद तक घटाने की कोशिश करेगी तो उसे प्रथम श्रेणी के दिमागी कार्यकर्ता मिलने मुश्किल हो जायगे जो दूसरों को रास्ता दिखाने का काम करते हैं। ऐसे लोगों की अनिवार्य रूप से आवश्यकता होती है, अतः उनको कुछ अधिक मजदूरी दी जानी चाहिए, ताकि वे कुछ अधिक सुसंस्कृत और एकान्तिक जीवन बिता सकें। इस प्रकार उत्पादन बढ़ाया जाय और जब काफ़ी उत्पादन होने लगे तो अन्य लोगों की मजदूरी भी उस सीमा तक बढ़ादी जाय । यदि उत्पादन के दौरान में यह मालूम पड़े कि किसी श्रमिक को आर्थिक प्रोत्साहन देने से वह पहले की अपेक्षा दुगुना उत्पादन कर सकता है तो कोई कारण नहीं कि उसे ऐसा प्रोत्साहन क्यों न दिया जाय ? चूंकि ऐसे प्रयोग पूजीवादी व्यवस्था में किये जाते हैं, केवल इसी-लिए हमें उनका बहिष्कार न करना चाहिए । पूँजीवादी व्यवस्था तो इसलिए टूटी कि उसमें आवश्यकता से अधिक उत्पादन किया गया। समाजवादी व्यवस्था में यह होना चाहिए कि जब लोगों की आमदनी एक सीमा तक पहुँच जाय तो बाद में राज्य आय-कर, उत्तराधिकार कर आदि लगा कर उसे सीमा से आगे न बढ़ने दे, ताकि समाज में ऊंच-नीच की भावना पैदा न हो और लोग बिना किसी अढ़चन के अपने चाल-बच्चों के शादी-विवाह कर सकें। यह ध्यान में रखना चाहिए कि<\br>