फूंक देते हैं। इस व्यवस्था के बजाय तो सरकारें अपनी आय का एक भाग पूंजी के तौर पर रग्ब द्दोटने के लिए हमें मजबूर कर सकती हैं। वे बैंको को राष्ट्रीय सम्पत्ति बना सकती हैं व्यवसायों के लिए पूंजी जटाने की समस्या का हल इस प्रकार अधिक अन्द्दी नरह किया जा सकता है।
अब हम सम्पत्ति के विभाजन की पांचवीं योजना पर विचार करेंगे। इसके समर्थक कहते हैं कि समाज को श्रेणियों में विभक्त कर दिया जाय
और विभिन्न श्रेणियों के बीच असमानता चाहे भले पाँचवी योजना ही रहे; किन्तु एक श्रेणी में हरएक को बराबर मिले ।
उदाहरणार्थ माधारण मजदूर को १५ रुपये मासिक, कुशल कारीगर को २५ या ३० रुपये मासिक, न्यायाधीनों को ५०० रूपये मासिक और मंत्रियों को ४ हज़ार रुपये मासिक वेतन दिया जाय ।
कहा जा सकता है कि आजकल भी तो ऐसा ही होता है । अवश्य ही बहुत बार ऐसा होता है; किन्तु ऐसा कोई कानून नहीं है कि अलग-अलग तरह का काम करने वालों को एक-दूसरे मे कम या अधिक दिया जाय । इस तरह सोचने की हमारी आदन ही पट गई है कि अशिक्षित लोगों की अपेक्षा जो दैनिक मजदूरी पर काम करते हैं, अध्यापकों, डाक्टरों और न्यायाधीशो को शिक्षित होने के कारण अधिक देना चाहिए; किंतु आजकल एक एंजिन-ड्राइवर. जो न तो भद्र पुरुष होने का दावा करता है और न जिसने कालेज की शिक्षा ही पाई होती है, कई अध्यापकों और कुछ डाक्टरों से अधिक क्माता है। इसके विपरीत कुछ अत्यंत प्रसिद्ध डाक्टरों को चालीस साल की अवस्था तक जीवन-निर्वाह के लिए कठोर संघर्ष करना पड़ता है । इसलिए हमको यह ग़लत खयाल न बना लेना चाहिए कि शारीरिक शक्ति और स्वाभाविक चतुराई की अपेक्षा भद्रता और शिक्षा के लिए हमको आजकल अधिक देना चाहिए या हम हमेशा अधिक ही देते हैं। बहुत पढ़े-लिखे लोग बहुधा घोड़ा या कुछ नहीं कमा पाते और आजीविका-इच्छुक व्यक्ति के लिए कुलीनता सम्पत्ति के अभाव में सुविधा के बजाय बाधा सिद्ध हो सकती है। व्यापारिक जगत