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समाजवाद : पूंँजीवाद


भी अधिक क्यों न हो; किंतु यह सब कुछ होते हुए भी अधिकार में वह उनका अफ़सर होता है । रुपया अधिकार या सत्ता की कुंजी नहीं है। हम में से जो लोग व्यक्तिगत सत्ता का उपभोग करते हैं उनको भी किसी तरह धनी नहीं कहा जा सकता। बढ़िया-बढ़िया मोटरगादियों में फिरने वाले करोडपति पुलिस के सिपाही की आज्ञा मानते हैं।

अवश्य ही धनिको की शक्ति भी यहुत वास्तविक होती है। धनी आदमी अपने नौकरों में से जिस पर भी अप्रसन्न हो जाय उसको काम से अलग कर सकता है, यदि किसी व्यापारी का व्यवहार उसके प्रति सम्मानपूर्णी न हो तो वह उसका माल खरीदना बन्द कर दे सकता है; किंतु अपनी शक्ति द्वारा दूसरे को बर्बाद करने की सुविधा पा लेना बिल्कुल दूसरी बात है और समाज में कानून और व्यवस्था कायम रखने के लिए आवश्यक सत्ता का होना दूसरी बात है । हम उस टकैत की बात मान सकते है जो हमारे सीने पर पिस्तौल तान कर कहे कि 'या तो सीधे हाथ से रुपया रख दो, नहीं तो उड़ा दिए जाओगे।' इसी तरह हम उस जमीदार की आज्ञा भी मान सकते हैं जो कहे कि या तो अधिक लगान दो नहीं तो बाल-बच्ची सहित घर से निकल जायो । किंतु यह सत्ता के आगे नहीं धमकी के आगे सर मुकाना हुआ । वास्तविक सत्ता का रुपए के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । वास्तव में उसका व्यवहार राजा से लेकर चौकीदार तक ऐसे लोगो द्वारा होता है जो अनेक शासित लोगों की अपेक्षा दरिद्र होते हैं।

अभी जैसा है वैसा ही रहने दिया जाय, यह सम्पत्ति-विभाजन की छठी योजना है। अधिकतर लोग इसके पक्ष में मत देते हैं । जिस बात के वे आदि हो गए है,उसको वे पसन्द न करते हो तो छठी योजना भी वे परिवर्तन से डरते हैं कि स्थिति कहीं और भी बुरी न हो जाय; किन्तु कोई भी समझदार आदमी यह न मानेगा कि उदासीन रह कर स्थिति यथावत रक्खी जा सकती है। यह तो बदलेगी, हमारे देखते-देखते ही बदल गई है और निरन्तर बदल रही है। दूसरे वह इतनी खराब है कि कोई भी आदमी, जो यह जानता