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पूँजीवाद में गरीबों की हानि

राष्ट्रीय आय के असमान विभाजन से हमें अपने दैनिक जीवन में जो घाटा उठाना पड़ता है वह हमारे रोज़मर्रा के अनुभव की चीज़ है।

हम गेहूँ, घी, शाक, कपड़ा, तेल या पुस्तक कोई भी खरीददारी मे चीज़ खरीदें, हमें वह केवल लागत मूल्य में कमी नहीं मिलती। हमें सदा उसके लागत मूल्य में कुछ-न-कुछ अधिक देना पड़ता है। हम जितना पैसा अपनी खरीद में अधिक देते हैं उतना,हमको मालूम होना चाहिए कि, उन लोगों के घरों में चला जाता है जो हमारा कोई काम नहीं करते हैं ।

हम में से हरएक आदमी यह भली भाँति जानता है कि चीज़ों को लागत कीमत जितनी होती है उससे कम में हमें चीजें कभी नहीं मिल सकती हैं; किन्तु हम यदि यह जान लें कि जो लोग चीज़ों के बनाने में कड़ी मेहनत करते हैं उन्हें तो दोनों वक्त भरपेट खाना भी नहीं मिलता और जो आलसी है वे हमारे इस अतिरिक्त पैसे को विलासिता के कामों में बेरहमी से खर्च करने के लिए अपने पास रख लेते हैं, तो यदि हमारा बस चले तो हम वह अतिरिक्त पैसा उन्हें देने को कभी राजी न होंगे।

समाजवादी क्या चाहते हैं ? यही कि लोगों को लागत मूल्य में चीजें दिलाई जाँय । किन्तु यह बात आलसी धनिकों और उन पर निर्भर रहने वाले लोगों को इतना ढरा देती है कि वे भापणों और समाचार-पत्रों द्वारा लोगों को यह बतलाने की पूरी कोशिश करते हैं कि उद्योग-धन्धों का राष्ट्रीयकरण अनैतिक है, अस्वाभाविक है और देश को बर्बाद कर देने वाला है। किन्तु ये सब थोथी बातें है। हम अच्छी तरह से जानते हैं कि स्थल सेना और जल सेना, शासन-प्रवन्ध, ढाक, तार, टेलीफ़ोन, सड़के, पुल, समुद्री प्रकाश, बन्दरगाह तथा हथियारखाने आदि सब राष्ट्रीय<\br>