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पराक्रमनी प्रसादी

कि बहुत प्राचीन काल में कौन कौन वृत्त अधिक प्रयुक्त होते थे, और धीरे धीरे परवर्ती कवियों ने किन किन नये छन्दों का प्रयोग आरम्भ किया था। प्रत्येक ग्रन्थ में प्रयुक्त अनुष्टुभ, गाथा, आर्या, आख्यानकी, उपजाति, वंशस्थ, वसन्ततिलका, मालिनी, प्रहर्षिणी, रथाद्धता, पुष्पिताग्रा शार्दूलविक्रीडित और स्त्रग्धरा आदि छन्दों को गिन कर उनकी एक सूची उन्होंने प्रकाशित की है। यथास्थान यति का न होना और वर्णविशेष की शिथिलता पर भी आपने विचार किया है। ऐसे स्थलों की भी सूची आपने दे दी है। फिर इन्हीं बातों का विचार आपने कालिदास के काव्यों और नाटकों के सम्बन्ध में किया है। आपने दिखाया है कि सबसे पुराने काव्यों में अनुष्टुभ् और आख्यानकी ( उपजाति ) ही की अधिकता है। कालिदास के रघुवंश में १९ सर्ग हैं। उसमें अनुष्टुभ् और आख्यानकी, रथोद्धता, वंशस्थ, द्रुतविलम्बित और वियोगिनी छन्द ही व्यापक छन्द हैं। प्रहर्षिणी, वसन्ततिलका, हरिणी, मालिनी आदि एकदेशीय हैं। उन्नीस सर्गो में ६ सर्ग अनुष्टुभ् में हैं और ८ आख्यानकी में। शेष और छन्दों में। बुद्धचरित के केवल १३ सर्ग मिलते हैं। उनमें से ३ सर्ग अनुष्टुभ् में और ८ आख्यानकी में हैं। इन दोनों कवियों ने केवल सम और अर्द्ध-सम वृत्त लिखे हैं। पर उनके परवर्ती भारवि ने विषम, और माघ ने जाति-श्रेणी के भी छन्दों का प्रयोग किया है। बहुत पुराने ज़माने के कवियों के काव्यों में इन छन्दों का प्रयोग नहीं देखा जाता। पहले दोनों कवियों के काव्यों में १२ अक्षरों से अधिक वाले एक भी व्यापक और १७-१८ अक्षरों से अधिक वाले एक भी एकदेशीय छन्द नहीं। पर परवर्ती भारवि और माघ के काव्यों में यह अक्षर-संख्या क्रम से १३-१५ से लेकर १७-२१ तक पहुँच गई है। अतएव सिद्ध है कि कालिदास भारवि के समय के