( ४ ) सोलहवीं शताब्दी के मध्य में हिन्दी को प्रौढ़ता प्राप्त होने,
( ५ ) वैष्णवधर्म के ज़ोर पकड़ने, से हिन्दी कविता उन्नत अवस्था को पहुँची। ये बातें विचार करने से ठीक नहीं मालूम होतीं।
अकबर के समय के हिन्दी के पद्य-साहित्य में नाम लेने लायक़ सौ पचास काव्य तो हैं नहीं। हैं सिर्फ दो---अर्थात् रामायण और सूरसागर। रामचन्द्रिका, कविप्रिया और रसिकप्रिया आदि भी हैं। पर उनका उतना प्रचार नहीं। हाँ, रामचन्द्रिका का कुछ अधिक प्रचार है; तथापि रामायण, विनयपत्रिका और सूरसागर के बराबर नहीं।
सूर और तुलसी के कविता-विकास का कारण देश में शान्ति का होना नहीं। ये दोनों महात्मा विरागी थे। न इनके पास कुछ धन था, न कोई बड़ी जायदाद जो अशान्ति के कारण लुट जाने का डर होता। इनके लिए शान्ति और अशान्ति प्रायः तुल्य थीं। अशान्ति के समय में धन-सम्पदावाले आदमी भी चोरों और डाकुओं के डर से साधु-संन्यासी के भेष में निर्विघन् विचरण कर सकते हैं। फिर जो सच्चे साधु---सच्चे त्यागी---हैं उन्हें अशान्ति का समय कैसे विघ्नकारक हो सकता है? यदि सूर और तुलसी के समय में घोर राजविप्लव होता तो भी उनके कमण्डलु और गुदड़ी का कोई गाहक न होता। दुराचारी आदमियों को भी साधु के भेष में देख कर उन्हें सताने का किसी को साहस नहीं होता। फिर भला ऐसे सच्चे महात्माओं और ऐसे भक्तशिरोमणियों को कौन बाधा-व्यथा पहुँचाने का साहस करता? अतएव अकबर के समय में चाहे जितनी अशान्ति होती, सूर और तुलसी वैसे ही निर्भय-विचरण करते और वैसी ही