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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/१९

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गोपियों की भगवद्भक्ति

आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथञ्च हित्वा
भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्॥

इन गोपियों के चरणों की रज वृन्दावन के जिन पेड़-पौधों और लता-गुल्मादिकों पर पड़ती है वे धन्य हैं―उनके सदृश पावन और कोई चीज़ नहीं। ये गोपियाँ साधारण स्त्रियाँ नहीं। अपने दुस्त्यज कुटुम्बियों और सर्व-सम्मत तथा परम्परागत पथ का परित्याग करके ये उस पथ से चलने वाली हैं जिसे श्रुतियाँ ढूँँढ़ती फिरती हैं, पर उन्हें ढूँढ़े नहीं मिलता। इसी पथ की बदौलत ये भगवान् की पदवी को प्राप्त करने में समर्थ हुई हैं। अतएव मेरी कामना है कि मैं इसी ब्रज के किसी पेड़, पौधे, लता या गुल्म के रूप में कभी जन्म लेकर अपने को कृतार्थ करूँ। उद्धव की यह उक्ति सुनकर कौन ऐसा भगवत्प्रेमी है जिसका शरीर कण्टकित और कण्ठ गद्गद हो जाय?

हमने अपने इस जन्म में न तो कभी साधु-समागम किया, न किसी सुकृत ही का सम्पादन किया और न किसी तरह का और ही कोई सत्कर्म किया। इस कारण उद्धव के सदृश कामना करने के हम अधिकारी नहीं। अतएव हमारी प्रार्थना इतनी ही है कि यदि पूर्वजन्मों में हमने कभी कोई सत्कार्य्य किया हो तो भगवान् हमें ब्रजमण्डल के करीर का काँटा ही बना देने की कृपा करें।

[जनवरी १९२७]
 

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