आदि हजारों शब्द इसमें ऐसे हैं जिनमें 'व' के बदले 'ब' का प्रयोग हुआ है। लेखक-महोदयों ने स्वयं अपने नाम के 'बिहारी' शब्द में भी 'ब' ही का प्रयोग किया है। हाँ, जिल्द के ऊपर जो नाम छपे हैं उनमें 'व' अवश्य है। पर वह शायद प्रेसवालों की कृपा का फल है।
प्रूफ़ भी पुस्तक के अच्छी तरह नहीं देखे गये। छापे की कितनी ही अशुद्धियाँ रह गई हैं। लेखक महाशयों ने विराम-चिह्नों के यथास्थान प्रयोग में भी बड़ी अवहेलना की है। विषयांश के अनुसार अपने कथन को समुचित पैराग्राफ़ो में विभक्त तक नहीं किया। भूमिका के तीसरे पृष्ठ से जो एक पैरा चला है तो दसवें पृष्ठ पर समाप्त हुआ है!
उपसंहार
इस पुस्तक के गुणों का उल्लेख समष्टिरूप से लेखारम्भ में हम कर आये हैं। यहाँ पर हम फिर भी कहते हैं कि यह पुस्तक उपादेय है। इसे लिख कर लेखक-महोदयों ने हिन्दी-साहित्य की जो सेवा की है तदर्थ वे प्रशंसा के पात्र हैं। गुणों की अपेक्षा दोषों को विशेष विस्तार से दिखाने का कारण यह है कि--"अपनी रचना की त्रुटियाँ किसी को जान ही नहीं पड़ती"। यह इस पुस्तक के लेखकों ही की राय है। उनकी यह राय सरस्वती के पहले भाग के पृष्ठ ४२१ पर मिलेगी। हिन्दी-काव्य की आलोचना में उन्होंने उसको त्रुटियों को दूर करने के इरादे से दोषों ही का विशेष उल्लेख किया है। अतएव हमने भी उन्हीं के दिखाये हुए मार्ग पर चलना उचित समझा। इसका एक कारण और भी है। लेखक-महोदयों का एक पत्र, अभी कुछ ही समय हुआ, कितने ही समाचारपत्रों में निकला है। उससे विदित हुआ कि