समाचारपत्र या पुस्तक का सम्पादक किसी पुस्तक के सम्बन्ध में कुछ लिखता भी था तो दस पाँच सतरों से अधिक न लिखता था और उनमें समालोच्य पुस्तक के विषय में, परिचय के तौर पर, योंही कुछ लिख कर अपने कर्तव्य से छुट्टी पा जाता था।
किसी विषय-विशेष की ओर, प्रारम्भ में, सर्वसाधारण जनों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए बहुत नहीं तो कुछ प्रयत्न और परिश्रम को अवश्य ही आवश्यकता होती है। यह प्रयत्न किसने और कितना किया है और उसे इस समालोचना-कार्य में कितनी सफलता मिली है, और मिली भी है या नहीं, इस बात का अनुमान, आशा है, इस पुस्तक से, थोड़ा बहुत, लग ही जायगा। प्रारम्भ के २० वर्षों में जो समालोचनायें "सरस्वती" में निकती हैं वे, किसी किसी की राय में, कठोर थीं। इस बात का निर्णय करने में कि यह आक्षेप, आजकल की आलोचनाओं की तुलना में, कहाँ तक न्यायसङ्गत है और है भी या नहीं, इस संग्रह से पाठकों को कुछ न कुछ सहायता मिलने की आशा है। यदि यह आक्षेप सःश में भी सच हो तो भी निवेदनकर्ता के लिए परिताप का कोई कारण नहीं। उसके लिए यही क्या कम सन्तोष की बात है कि उसके सदृश अल्पज्ञ द्वारा प्रदर्शित मार्ग, पहले की अपेक्षा अब अधिक प्रशस्त हो गया है और होता जा रहा है, तथा बड़े बड़े विज्ञ विद्वान् अब उस पथ के पथिक होकर उसकी उन्नति में दत्तचित्त हैं।
पुस्तकान्त में जो २० नम्बर का लेख है उसका विस्मरण ही संग्रहकार को हो गया था । स्मरण उसका एक मित्र ने कराया। उनसे मालूम हुआ कि जिन सजनों की पुस्तक की आलोचना उसमें है उन्होंने उसका प्रतिवाद भी किया है और बड़ी योग्यता