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समालोचना-समुच्चय

पाठकों के मन में यह शङ्का उद्भूत हो सकती है कि यदि इस ग्रन्थ में सभी पद्य ऐसे ही हैं तो इसकी काव्य-संज्ञा नहीं हो सकती; क्योंकि व्याकरण के विविध प्रयोगों से पूर्ण यह तो महाशुष्क रचना मानी जायगी; रस का तो इसमें प्रायः अभाव ही है और जिसमें रस नहीं उसकी गणना काव्य में नहीं हो सकती; क्योंकि रसात्मक वाक्य ही काव्य कहलाता है―"वाक्यं रसात्मक काव्यम्"। यह शङ्का अकारण नहीं। इस काव्य के कुछ अंश, यत्र तत्र, अवश्य ही नीरस से हैं; परन्तु इसमें सरस पद्य भी हैं और बहुत हैं। अतएव उतने अंश अवश्य ही काव्य के लक्षणों से लक्षित हैं। एक बात और भी तो है। अन्य कवियों और महा-कवियों की जिन कृतियों को काव्य-पदवी प्राप्त हुई है वे क्या सर्वाश में सरस और काव्यत्व से पूर्ण हैं? उनमें भी तो स्थल-विशेष और पद्य-विशेष नीरसता लिये हुए हैं। अतएव यदि वे सब काव्य हैं तो भट्टि कवि का भट्टिकाव्य भी काव्य ही है।

इस ग्रन्थ में वीर रस प्रधान है। अङ्गाङ्गि-भाव से और रसों का भी, कहीं कहीं, यथास्थान, परिपाक हुआ है। अलङ्कारों का भी इसमें अभाव नहीं। यद्यपि इसमें व्याकरण के प्रयोग प्रकट दिखाने की चेष्टा की गई है तथापि प्रसाद-गुण भी इसमें पाया जाता है। परन्तु जिसको गति व्याकरण-शास्त्र में है उसी को इसकी रचना में उस गुण का ज्ञान शीघ्र हो सकता है; दूसरों को उसकी अवगति में विलम्ब अवश्य लग सकता है। तिस पर भी, कुछ स्थानों को छोड़ कर, अन्यत्र इसमें क्लिष्ट कल्पनायें बहुत ही कम पाई जाती हैं। इस काव्य के गुण-दोषों का विचार करते समय कवि के समय का भी विचार करना चाहिए। जिन प्राचीन कवियों की गणना महाकवियों में है उन्होंने भी सर्ग के सर्ग चित्र-काव्य से चित्रित कर डाले हैं। उनकी देखादेखी भट्टि ने भी अपनी कवित्व-शक्ति