५७२ सम्पूर्ण गांधी वाङमय पुराने भारतीय निवासियोंसे सम्बन्धित प्रवासी कानूनका प्रयोग इस ढंगसे किया जा रहा है कि हर आदमी इस आशंका से भर उठता है कि यदि उसने भारत अथवा किसी अन्य स्थानकी यात्रा करनेके लिए अस्थायी रूपसे भी इस देशको छोड़ा तो उसके लिए वापस लौट पाना कठिन हो जायेगा । जिस समय मैं केप टाउन पहुँचा उसी समय वहाँ एक ऐसा मामला घटित हुआ, जिससे मेरे कथनकी पुष्टि हो जाती है । इस समय स्थिति यह है कि यदि उस प्रान्तका कोई भारतीय निवासी वहाँसे अस्थायी रूपसे बाहर जाना चाहता हो तो उसे साथ में एक अनुमतिपत्र लेकर जाना पड़ता है, जिसमें उसके लौटने की अवधि निर्धारित कर दी जाती है । एक ऐसा ही भारतीय व्यापारी एक वर्षकी अवधिका अनुमति पत्र लेकर भारत यात्रापर आया था और अपना कारोबार उसने अपनी पत्नी और बच्चोंके हाथों सौंप दिया था । किन्तु उसे वापस लौटने में एक दिनकी देर हो गई। देरी इसलिए हो गई कि जहाजको तूफानकी वजहसे मार्ग में चार दिनों तक रुक जाना पड़ा था । यदि जहाज समयानुसूची के अनुसार चलता तो वह अपने अनुमतिपत्रकी अवधि समाप्त होनेसे तीन दिन पहले ही केप टाउन पहुँच गया होता । लेकिन, फिर भी उसे इस कानूनी मुद्देके आधारपर वापस भेज दिया गया कि वह निर्धारित समय के भीतर नहीं लौटा । इस तरह उसका कारोबार बरबाद हो गया और उसकी पत्नी और बच्चोंको लाचार होकर देश छोड़ना पड़ा। इसी तरह नेटालके पुराने बाशिन्दोंको अधिवासके प्रमाणपत्र दिये जाते हैं, और ऐसा माना जाता है कि इन प्रमाणपत्रोंकी रूसे उन्हें देशसे बाहर जाने और जब चाहे वापस आ जानेका अधिकार प्राप्त हो जाता है । इसमें शर्तें सिर्फ इतनी है कि प्रवासी अधिकारीको इन प्रमाण- पत्रोंकी प्रामाणिकताके सम्बन्धमें भरोसा हो जाना चाहिए। किन्तु, दरअसल इस सत्ताका उपयोग आज नेटालते अस्थायी रूपसे बाहर रहने के बाद वहाँ लौटनेवाले ऐसे लोगोंसे जवाब-तलब करनेके लिए किया जा रहा है, जिनके प्रमाणपत्र पन्द्रह-पन्द्रह था सोलह-सोलह वर्ष पुराने हैं । ये कहाँ रहते थे, पहले-पहल यहाँ आनेपर वे क्या करते थे, और इसी तरहको अन्य अनेक बातोंके सम्बन्धमें उनसे बारीकसे-बारीक तफसील माँगी जाती है । और यदि बिना कुछ सोचे-विचारे अचानक दिये गये इन उत्तरों और उनके कागजातमें अंकित तथ्योंके बीच कोई अन्तर हुआ तो यह इन प्रमाणपत्रोंको अस्वीकार कर देने और उनके मालिकोंको सर्वथा बरबाद होकर भारत लौटनेको मजबूर कर देनेका पर्याप्त कारण माना जाता है । अब मैं मंचपर उपस्थित यूरोपीय मित्रोंसे कहूँगा कि यदि आपसे अचानक इस सम्बन्धमें तरह-तरह के सवाल पूछ लिये जायें कि जब आप इस देशमें पहले-पहल आये थे तब कहाँ रहते थे, क्या करते थे, इत्यादि, तो आपमें से कितने लोग बिना कोई गलती किये ऐसे प्रश्नोंके उत्तर दे पायेंगे ? फिर, सारी केप कालोनी और नेटालमें व्यापारिक तथा फेरी-संबन्धी परवानोंका सवाल उपस्थित है, जिससे भारतीयों के मनमें बड़ी उथल-पुथल मची हुई है । दोनों प्रान्तोंमें अब स्पष्ट रूपसे यह नीति प्रारम्भ कर दी गई है कि भारतीयोंको जहाँतक हो सके, नये परवाने न दिये जायें और जैसे-जैसे अवसर मिलता जाये, उनके पुराने परवानोंको भी समाप्त कर दिया जाये । चूँकि इन परवानोंको हर साल बदलवाना पड़ता है, इसलिए हर भारतीय व्यापारीका मन इस सम्बन्धमें अतिशय अनिश्चितताकी भावनासे भरा रहता है कि जब उसके परवानेके बदले जानेका समय आयेगा तब कहा नहीं जा सकता क्या होगा । बम्बईका व्यवसायी समाज इस बातको आसानीसे समझ सकता है कि ऐसी वस्तु-स्थितिके परिणाम कितने विनाशकारी होंगे और भविष्य के सम्बन्ध में निरन्तर चिन्तित रहनेसे सम्बन्धित व्यक्तियोंके कारोबार किस प्रकार ठप होकर अन्तमें वे बरबाद हो जायेंगे । ट्रान्सवालमें तो स्वर्ण क्षेत्रका अनवरत विस्तार, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय व्यापारियोंको केवल बस्तियों में रहने और व्यापार करनेको बाध्य होना पड़ता है, अपने-आपमें एक भयंकर मुसीबत है । क्रूर अत्याचार किन्तु, स्थानीय अधिकारी इस क्रूर अत्याचारकी नीतिको और भी आगे बढ़ा रहे हैं। वे जिस पुरानी बस्ती में भी भारतीयोंको अपना कारोबार सफलतापूर्वक चलाते देखते हैं, उसे तोड़कर उन्हें ऐसी Gandhi Heritage Porta
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