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भाषण: फीरोजशाह मेहताके निधनपर

जब कि वे हमारे बीच नहीं रहे, हमें उनके दोष नहीं देखने चाहिए। हमने उनकी मृत्यु पर शोक प्रकट करनेके लिए जो यह सभा की है, सो तो हमने अपना एक कर्त्तव्य ही पूरा किया है। किन्तु हमें इतना करके ही बैठ न जाना चाहिए। सर फीरोजशाहकी इच्छा यह थी कि हम सभी उन्हींकी तरह लोक-सेवा करें; हम ऐसी सेवा करके ही उनके प्रति अपने कर्त्तव्यका पालन करेंगे। उनका नश्वर शरीर तो चला गया है; किन्तु उनका कार्य सदा जीवित रहेगा। उनकी लोक-सेवाकी उत्कंठा इतनी तीव्र थी कि वे अपने मुवक्किलोंके मुकदमे मुल्तवी करा देते थे, अपनी फीस छोड़ देते थे और अनेक असुविधाएँ सहते थे; किन्तु वे बम्बई नगर निगमकी बैठकोंमें अवश्य उपस्थित होते थे। बम्बई नगर-निगमके कार्यको अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर वे कभी-कभी धारासभामें भी नहीं जाते थे। उन्हें केवल राजनीतिक मामलोंमें ही गुंथा रहना पसन्द नहीं था। यह सिद्धान्त था कि जिस कामको हाथमें लिया जाये उसे सफल बनाया जाये और उन्होंने इसी कारण बम्बई नगर-निगमके कामपर सबसे अधिक ध्यान दिया था। भारत में ऐसा कोई शहर नहीं हैं जिसकी नगरपालिकाके कामकाजमें किसी सदस्यने इतनी अधिक दिलचस्पी ली हो जितनी बम्बई नगर-निगमके कामकाजमें सर फीरोजशाहने ली थी। बर्मिंघम नगरपालिकामें उसके अध्यक्ष श्री चैम्बरलेनने[१]जो कार्य किया है संसारमें सर्वत्र उसकी प्रशंसा हुई है। किन्तु ऐसे चार चैम्बरलेनोंके बराबर काम बम्बईके लिए अकेले सर फीरोजशाहने किया है। उनका सच्चा स्मारक तो यही है कि समस्त नगरपालिकाएँ उन्हींकी तरह काम करें। सर फीरोजशाहके दफ्तरमें रोजमर्रा जो राजनैतिक चर्चाएँ चलती रहती थीं, उनसे बम्बईका लोकसमाज प्रभावित हुए बिना न रहता था। वे पारसीके बजाय भारतीय अधिक थे। और उनका विश्वास था कि सारे भारतीयोंकी जबतक एक जाति नहीं बनती तबतक वे संगठित नहीं होंगे। उनके दफ्तरमें जो चर्चाएँ होती थीं उनका मुख्य विषय उन उपायोंपर विचार करना ही होता था जिनका अवलम्बन करके निर्भय होकर अपने अधिकार प्राप्त किये जा सकते हैं। लोकसेवाके निमित्त उन्हें बहुत त्याग करना पड़ा था। उन्होंने एक बार मुझे एक मामले में बहुत अच्छी सलाह दी थी। एक बार किसीने मेरा अपमान किया। उसको लेकर मैं उसपर हर्जानेका दावा करनेवाला था। उस समय उन्होंने मुझे यह सलाह दी थी कि: “यदि तुम अपना और लोगोंका कल्याण करना चाहते हो तो इस अपमानको पचा जाओ और भविष्यमें भी जो अपमान हों उनको भी तुम्हें पचा जाना चाहिए। मुझे भी अनेक बार ऐसा करना पड़ा है।” इस सलाह [पर अमल करने के कारण ही मुझमें कुछ काम करनेकी शक्ति आई है, यह मुझे स्वीकार करना चाहिए। हम आज उनका जो यशोगान कर रहे हैं वह इसलिए कि वे विवेक, बुद्धि, साहस और श्रद्धा आदि गुणोंके निधान थे। आज जिस महान् पुरुषके लिए अहमदाबाद शोक मना रहा है उसकी स्मृति चिरस्थायी बनानेके उद्देश्यसे एक सुझाव देनेकी इच्छा होती है। अहमदाबादका यह सार्वजनिक भवन लज्जाजनक रूपसे छोटा है। जिन शहरोंकी आबादी अहमदाबादकी आबादीसे चौथाई है, वहाँ भी

  1. १. जोजेफ चैम्बरलेन, देखिए खण्ड १, पृष्ठ ३९२।
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