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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बिताता है, जिसकी वृत्तियाँ सादी हैं, जो सत्य की मूर्ति है, जो विनम्र है, जो सत्यका ही स्वरूप है, जिसने अहंकारका आत्यन्तिक त्याग किया है, वह पुरुष स्वयं जाने या न जाने, धर्मात्मा ही है। महात्मा गोखले ऐसे पुरुष थे, यह मैं लगभग २० वर्षके उनके समागमके अपने अनुभवमें देख सका था।

सन् १८९६ में नेटालके गिरमिटियोंके प्रश्नकी चर्चा मैंने भारतमें चलाई थी। उस समय में भारतके नेताओंको केवल नामसे ही जानता था। उस मौकेपर मैं पहले-पहल कलकत्ता, बम्बई, पूना और मद्रास में रहनेवाले नेताओंके सम्पर्कमें आया था। तब महात्मा गोखलेकी ख्याति श्री रानडेके शिष्यके रूपमें थी और वे फर्ग्युसन कॉलेजके लिए अपना जीवन अर्पण कर चुके थे। उस समय मैं केवल एक अनुभवहीन युवक था। पूनामें, हमारी पहली मुलाकातके समय हम दोनोंके बीच प्रेमकी जो गाँठ बँधी, वह दूसरे किसी नेता और मेरे बीच नहीं बँधी। महात्मा गोखलेके विषयमें मैंने जो-कुछ सुना था, उसको मैंने प्रत्यक्ष देखा है; लेकिन उनकी स्नेहपूर्ण मुखाकृतिका मेरे मनपर जो असर पड़ा, उसे मैं अबतक भी नहीं भूल सका हूँ। मैंने तुरन्त जान लिया कि वे धर्म की मूर्ति है। उस समय मुझे रानडेके भी दर्शन हुए थे, लेकिन मैं उनके अन्तरमें प्रवेश नहीं कर सका। इतना ही जान सका कि वे गोखलेके गुरु हैं। वे आयु और अनु- भवमें मुझसे बहुत बड़े थे, इस कारणसे या और किसी कारणसे में जितना गोखलेको पहचान सका, उतना रानडेको नहीं।

सन् १८९६ के उपर्युक्त समागमके बाद गोखलेका राजनीतिक जीवन मेरे लिए आदर्श रूप बन गया। उसी समय वे मेरे हृदयमें मेरे राजनीतिक गुरुके रूपमें आसीन हो गये। उन्होंने सार्वजनिक सभाकी[१] त्रैमासिक पत्रिकाका सम्पादन किया, फर्ग्युसन कॉलेजमें शिक्षण देकर कॉलेजकी शोभा बढ़ाई, और वेल्वी-कमीशनके[२] सामने गवाही देकर अपन सच्चे मूल्यसे भारतको परिचित किया। उन्होंने लॉर्ड कर्जन[३] पर अपनी योग्यताकी ऐसी गहरी छाप डाली कि किसी अन्यसे न डरनेवाले लॉर्ड कर्जन भी उनसे डरते थे। उन्होंने केन्द्रीय धारासभामें बड़े-बड़े कार्य सम्पादित करके भारतका नाम उज्ज्वल किया। अपने जीवनको खतरेमें डालकर उन्होंने लोक सेवा आयोग (पब्लिक सर्विस कमीशन) में सेवा की। ये और ऐसे अनेक कार्य उन्होंने किये, जिनका वर्णन मेरी बनिस्बत दूसरे लोग ज्यादा अच्छी तरह कर चुके हैं। इसके सिवाय यह कहना कठिन है कि इन कार्योंसे जिसे मैंने उनके जीवनका सन्देश माना है और जिसका मैंने ऊपर वर्णन किया है, उसका स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है। इसलिए मैंने स्वयं जो कुछ देखा है और उनके सन्देश के प्रमाणस्वरूप जो वस्तु हमारे सामने मौजूद है, उसको देकर यह लेख पूरा करना चाहता हूँ।

 
  1. १. इसकी स्थापना १८७० में श्री रानडे और गणेश वासुदेव जोशीने की थी और यह उन दिनों भारतकी एक प्रमुख राजनैतिक संस्था थी। (खण्ड २, पृष्ठ ४२०-२१)।
  2. २. शाही-कमीशन जो १८९४ में भारतके सैनिक-व्ययको इंग्लैंड और भारतके बीच विभक्त करनेके प्रश्नपर विचार करनेके लिए नियुक्त किया गया था।
  3. ३. (१८५९-१९२५); भारतके वाइसराय, १८९९-१९०५।