पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/२५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हमें स्वदेशीकी दिशामें भी अपने प्रयास-मात्र इसलिए बन्द नहीं कर देने चाहिए कि वह अभी कई पीढ़ियों तक अप्राप्य ही रहेगा।

अब हम, ऊपर स्वदेशीकी जिन तीन शाखाओंका उल्लेख किया गया है, उनका थोड़ा विवेचन करें। हिन्दू धर्म अपनी बुनियादमें निहित इसी स्वदेशीकी भावनाके कारण स्थितिशील और फलस्वरूप अत्यन्त शक्तिशाली बन गया है। चूँकि वह धर्मान्तरणकी नीतिमें विश्वास नहीं करता इसलिए वह सबसे ज्यादा सहिष्णु है, और आज भी वह अपना विस्तार करनेमें उतना ही समर्थ है, जितना भूतकालमें था। कहा जाता है कि उसने बौद्ध-धर्मको खदेड़कर भारतसे बाहर कर दिया। यह ठीक नहीं है। उसने उसे आसात् कर लिया। स्वदेशीकी भावनाके कारण हिन्दू अपने धर्मका परिवर्तन करनेसे इनकार करता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अपने धर्मको सर्वश्रेष्ठ मानता है। कारण यह है कि वह जानता है कि उसमें नये सुधारोंका समावेश करके उसे पूर्ण बनाया जा सकता है। और मैंने हिन्दुत्वके विषयमें जो कुछ कहा है, वह मेरे विचारसे संसारके सभी बड़े-बड़े धर्मोपर लागू है। हाँ, हिन्दूधर्मके बारेमें यह विशेष रूपसे सही है। यहाँ वह बात आ जाती है जिसे कहनेकी मैं कोशिश कर रहा हूँ। भारतमें काम करनेवाली बड़ी-बड़ी मिशनरी संस्थाओंने भारतके लिए बहुत कुछ किया है और अब भी कर रही हैं, और भारत इसके लिए उनका ऋणी है। किन्तु मैंने जो कुछ कहा है, उसमें यदि कोई सार हो तो क्या यह ज्यादा अच्छा न होगा कि वे परोपकारका अपना काम जारी रखते हुए धर्मान्तरणका काम बन्द कर दें? क्या ईसाइयतकी भावनाके पोषणकी दृष्टिसे यह अधिक अच्छी बात न होगी? मैं आशा करता हूँ कि आप मेरे इस कथनको अशिष्टता नहीं मानेंगे। मैंने हृदयपूर्वक और विनम्रतासे यह सुझाव सामने रखा है। इसके सिवा आप मेरी बात ध्यानसे सुनें, इसका मुझे कुछ अधिकार भी है। मैंने ‘बाइबिल’ को समझनेका प्रयत्न किया है। मैं उसे अपने धर्मशास्त्रों में गिनता हूँ। मेरे हृदयपर जितना अधिकार ‘भगवद्गीता’ का है, लगभग उतना ही अधिकार ‘सरमन ऑन द माउन्ट’ का भी है। ‘लीड, काइन्डली लाइट’ तथा अन्य अनेक प्रेरणा-स्फूर्त प्रार्थना-गीत मैं किसी ईसाई धर्मावलम्बीसे कम भक्तिके साथ नहीं गाता हूँ। मैं विभिन्न सम्प्रदायोंके प्रसिद्ध ईसाई मिशनरियोंके सम्पर्कमें आया हूँ और उनसे प्रभावित भी हुआ हूँ। उनमें से अनेक आज भी मेरे मित्र हैं। इसलिए आप कदाचित् स्वीकार करेंगे कि मैंने यह सुझाव किसी पूर्वग्रह-ग्रस्त हिन्दूकी तरह नहीं दिया है, बल्कि धर्मके एक ऐसे विनम्र और निष्पक्ष विद्यार्थीके नाते दिया है, जिसका ईसाइयतकी ओर बड़ा झुकाव है। क्या यह सम्भव नहीं है कि “सारी दुनियामें जाओ”――इस सन्देशकी वास्तविक भावनाको समझे बिना उसका संकीर्ण अर्थ किया गया है? मैं अपने अनुभवसे कहता हूँ कि इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि ज्यादातर धर्म-परिवर्तनका तो धर्मसे नाम मात्रका ही सम्बन्ध होता है। कुछ तो हृदयके बजाय पेटकी खातिर इस ओर प्रेरित होते हैं। और हर धर्मान्तरणके कारण कुछ-न-कुछ कटुता पैदा होती ही है, जो मेरी समझमें टाली जा सकती है। मैं फिर अनुभवके बलपर कहता हूँ कि जिसे ‘नया जन्म’ (न्यू बर्थ) कहा जाता है, हृदय-परिवर्तनकी वह घटना हर महान् धर्ममें सम्भव है। मैं जानता हूँ कि मैं एक बड़ी नाजुक-सी बात