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भाषण: आश्रमके व्रतोंपर

 

स्वदेशी-व्रत

अब में स्वदेशी व्रतपर आता हूँ। आप स्वदेशीनिष्ठ जीवन और भावनासे परिचित हैं। यदि हम अपने पड़ोसीके बजाय अपनी जरूरतोंको पूरा करनेके लिए किसी बाहरके आदमीसे सौदा-पत्ता करें तो मेरा कहना है कि यह जीवनके एक पवित्र नियमका उल्लंघन है। अगर कोई व्यक्ति बम्बईसे आकर यहाँ आपको बर्तन बेचना चाहे और आपके पड़ोसमें ही मद्रासमें पला-पनपा कोई व्यापारी है, तो आपका बम्बईके व्यापारीसे लेन-देन करना उचित नहीं है। स्वदेशीके बारेमें मेरा ऐसा खयाल है। यदि मद्राससे आपके पास कोई हुनरमन्द नाई आये तो उसे छोड़कर आपको अपने गाँवके नाईको आश्रय देना चाहिए। अगर आपको लगे कि गाँवके नाईको मद्रासके नाईके समान कुशल होना चाहिए तो आप उसे वैसा काम सिखवा दें। अगर चाहें तो बिला शक उसे मद्रास भेजें ताकि वह अपना धन्धा [अच्छी तरह] सीख ले। यदि आप यह न करके दूसरे नाईसे काम लेते हैं तो यह उचित नहीं है, इसका नाम है स्वदेशी। इसीलिए यदि हम देखते हैं कि अनेक चीजें भारतमें नहीं बनतीं तो हमें उनके बिना काम चलानेकी कोशिश करनी चाहिए। सम्भव है हमें ऐसी बहुत-सी वस्तुओंके बिना रहना पड़े जिन्हें हम जरूरी समझते हैं; किन्तु विश्वास कीजिए एक बार मन तैयार कर लेनेपर ‘पिलग्रिम्स प्रोग्रेस’ नामक पुस्तकके यात्रीकी तरह आपको अपने कन्धोंसे बहुत-सा बोझ उतर गया-सा जान पड़ेगा। यह यात्री अपने कन्धोंपर जबर्दस्त बोझा ढो रहा था। किसी एक क्षण ऐसा हुआ कि अनजाने वह बोझीला सामान कहीं गिर गया और उसे लगा कि जब उसने यात्रा शुरू की थी तब से वह अब अपेक्षाकृत मुक्त है। इसी तरह जैसे ही आपने यह ‘स्वदेशी व्रत’ अपनाया कि आपको हल्केपनका अनुभव हुआ।

अभय-व्रत

फिर हमारे यहाँ अभय व्रत भी है। भारतके अपने समूचे दौरेमें मैंने देखा कि भारत, उसका शिक्षित समुदाय, पंगु बना देनेवाले भयसे ग्रस्त है। हम सार्वजनिक रूपसे अपने ओठ सिये हुए हैं; अपना निश्चित मत खुले तौरपर प्रकट नहीं करते; हम अकेले में उनकी चर्चा करते हैं; चारदीवारीमें बन्द होकर हम चाहे जैसी बातें कर लेते हैं किन्तु उन्हें सार्वजनिक रूप नहीं देते। यदि हमने मौन व्रत लिया होता तो मुझे कुछ नहीं कहना था। किन्तु जब हम सार्वजनिक रूपसे कुछ कहते हैं तो वह सब कहते हैं जिसमें सचमुच हम भरोसा नहीं रखते। शायद भारतमें भाषण करनेवाले हरएक जननायकका यही हाल है। इस परिस्थितिमें मेरा यह कथन है कि एक ही सत्ता, यदि उसके लिए सत्ता शब्दका प्रयोग ठीक हो, ऐसी है जिससे हमें डरना है और वह है ईश्वर। ईश्वरसे डरें तो आदमीसे डर नहीं रहेगा――वह चाहे जितना बड़ा क्यों न हो। और आप किसी भी रूपमें सही सत्यके व्रतका पालन करना चाहते हैं तो अभय उसकी अनिवार्य परिणति है। इसलिए ‘भगवद्गीता’में अभयको[१] ब्राह्मणका

  1. १. अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
    दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥ १६-१॥