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श्रीमती बेसेंटको उत्तर

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[अंग्रेजीसे]
हिन्दू, १७-२-१९१६
 

१७२. श्रीमती बेसेंटको उत्तर

[फरवरी १७, १९१६ से पूर्व]

श्री मो० क० गांधीन हमें लिखा है:

“न्यू इंडिया” में श्रीमती बेसेंटने बनारसकी घटनाका जो उल्लेख किया है तथा अन्यत्र भी उसकी जो चर्चा की गई है, उसके कारण, चाहे मैं कितना ही अनिच्छुक क्यों न होऊँ, मेरे लिए उस सम्बन्धमें फिरसे कुछ कहना आवश्यक हो गया है। श्रीमती बेसेंट मेरे इस कथनसे इनकार करती हैं कि उन्होंने राजाओंके कानमें कुछ कहा था।[१] मैं तो केवल इतना ही कह सकता हूँ कि यदि में अपने कानों और अपनी आँखोंपर भरोसा कर सकता हूँ तो मुझे, जो-कुछ मैंने पहले कहा है, उसपर अड़े रहना चाहिए। सभापति महाराजा दरभंगाके दूसरी ओर कुछ लोग अर्धवृत्त बनाकर बैठे हुए थे, और श्रीमती बेसेंट उस अर्धवृत्तकी बाईं ओर बैठी हुई थीं। उनकी बगलमें कमसे-कम एक या शायद, दो राजे बैठे हुए थे। जब मैं बोल रहा था, उस समय श्रीमती

बेसेंट मेरे पीछे थीं। जब महाराजा उठे तब श्रीमती बेसेंट भी उठ खड़ी हुईं। राजाओंके मंच छोड़नेसे पहले ही मैंने बोलना बन्द कर दिया था। श्रीमती बेसेंट मंच-पर आसपासके लोगोंसे इस घटनाके सम्बन्धमें बातें कर रही थीं। मैंने बहुत धीरेसे उनसे कहा कि आप बीचमें बिना कुछ बोले चुपचाप बैठी रह सकती थीं और यदि मेरा व्याख्यान आपको पसन्द नहीं था तो उसकी समाप्तिपर कह सकती थीं कि में इन विचारोंसे सहमत नहीं हूँ। लेकिन उन्होंने कुछ गरम होकर कहा, जब आप अपने भाषणके द्वारा श्रोताओंपर ऐसी छाप डाल रहे थे, मानो मंचपर उपस्थित हम सब लोग आपके विचारोंसे सहमत हों, तब हम चुपचाप कैसे बैठे रह सकते थे? जो बातें आपने कही थीं वे आपको नहीं कहनी चाहिए थीं।" इस घटनाका जो विवरण वे देती हैं, उसके अनुसार तो वे मेरे प्रति चिन्ता-भावसे प्रेरित होकर ही मेरे भाषणके बीचमें बोल पड़ी थीं। किन्तु, श्रीमती बेसेंटका उक्त उत्तर इस बातसे मेल नहीं खाता है। मैं सिर्फ इतना कहूँ कि यदि उनका उद्देश्य केवल मुझे बचानाही था तो वे चुपचाप एक पुरजा पहुँचा दे सकती थी अथवा धीरेसे मेरे कान में अपनी सम्मति कह दे सकती थीं। और फिर यदि मेरा बचाव करना ही उनका अभीष्ट था तो उन्हें राजाओंके साथ उठकर हॉलसे बाहर चले जानेकी क्या पड़ी थी? और

  1. १. देखिए परिशिष्ट १।
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