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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

था। प्रथाको बन्द करनेमें अपनेको असमर्थ देखकर भारत सरकारने गोखलेजीका प्रस्ताव पास तो नहीं होने दिया, परन्तु उसकी समझमें यह जरूर आ गया कि निकट भविष्यमें उसे यह प्रथा बन्द करनी ही होगी; इसमें बहुत विलम्ब नहीं किया जा सकता। उसे यह प्रथा बन्द करनी ही होगी; इसमें बहुत विलम्ब नहीं किया जा सकता। श्री मालवीयके द्वारा प्रस्तुत किये जानेवाले प्रस्तावसे मालूम होता है कि श्री एन्ड्रयूज और पियर्सनकी रिपोर्टमें गिरमिट-प्रथाको बन्द कर दिये जानेकी सिफारिश की गई है। लॉर्ड हार्डिजकोयह ठीक ही लगेगा कि वे अपने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शासन-कालके आखिरी दिनोंमें चलते-चलते इस बहुत पुरानी और सर्व-विदित शिकायतको दूर करनेका महत्त्वपूर्ण कार्य अवश्य करते जायें।

निम्नलिखित पंक्तियोंमें मैं अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभव और गिरमिट-प्रथाके प्रश्नपर अपने कुछ विचार व्यक्त करनेका प्रयत्न करूँगा। आँकड़ोंके लिए पाठकोंको चाहिए कि वे श्री गोखलेके उपरोक्त भाषण तथा सर्वश्री ऐन्ड्रयूज व पियर्सनकी शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाली रिपोर्टका अवलोकन करें।

निस्सन्देह गिरमिट-प्रथा गुलामी-प्रथाका अवशेष मात्र है। १८९५ में स्वर्गीय सर विलियम हंटरका ध्यान इस प्रथाकी ओर आकृष्ट किया गया। तब सबसे पहले उन्होंने इस प्रथाको “दासतासे ही मिलती-जुलती” प्रथा बतलाया। कानून अंशत: प्रायः अपने समयके लोकमतको प्रतिबिम्बित करते हैं। किन्तु, दासताको मिटानेसे सम्बन्धित कानून वास्तवमें लोकमतसे आगे ही नहीं, बल्कि बहुत आगे बढ़ा हुआ था। जैसा हर नये कानूनके बारेमें हुआ करता है, वैसा ही इस कानूनके सम्बन्धमें भी हुआ। जो गुलाम रखते थे, इस कानूनसे असन्तुष्ट होकर, उन्होंने गिरमिट प्रथाका सहारा लिया और इस कानूनको बहुत-कुछ प्रभावहीन बना दिया। जो जुआ अबतक काले-काले हब्शियोंकी गर्दनपर था वह अब रंगदार भारतीयोंके कन्धोंपर आ गया। अलबत्ता बोझको एकके कन्धेसे दूसरे कन्धेपर रखते हुए कुछ कम जरूर करना पड़ा, उसका रूप-रंग और आवरण भी बदल दिया गया; परन्तु मूल तत्त्व तो वे ही बने रहे। इस प्रथाके भयंकर रूपका स्पष्ट दर्शन तो तब हुआ जब यह अभिशाप दक्षिण आफ्रिका-पर उतरा और वहाँकी सोनेकी खदानों में काम करनेके लिए चीनसे गिरमिटिया मजदूर लाये गये। स्वर्गीय सर हेनरी कैम्बेल बेनरमैन[१] ब्रिटिश-द्वीप-समूहके कोने-कोने में जाकर इस प्रथाको निन्द्य ठहराते हुए जोरदार व्याख्यान दिये थे। तब उनका काम वोट पानेकी चाल नहीं थी। उन्होंने कहा कि दक्षिण आफ्रिकाको इस कुप्रथासे मुक्त करानेके निमित्त जो भी त्याग करना पड़े थोड़ा है। जोहानिसबर्गके बड़े-बड़े करोड़पतियोंने चीनी गिरमिटिया मजदूरोंको बनाये रखनेके लिए जमीन-आसमान एक कर दिया। उन्होंने कहा हमें वक्त चाहिए। किन्तु लोकसभा (हाउस ऑफ कामन्स) ने उनकी एक नहीं सुनी। खदानोंके मालिकोंको लेनेके देने पड़ गय । मानव-जातिके हित-साधनका ध्यान सर्वोपरि हो उठा। खदानोंके बन्द हो जानेकी नौबत आ गई किन्तु संसदने परवाह न की। श्री चेम्बरलेनको[२]।लाखों रुपयोंका दिया गया वचन जहाँका-तहाँ रह गया। सदनमें

  1. १. सर हेनरी केम्बेल बेनरमैन, इंग्लैंडके प्रधानमन्त्री (१९०५-१९०८)।
  2. २. जोजेफ़ चेम्बरलेन (१८३६-१९१४), अंग्रेज राजनीतिज्ञ और उपनिवेश-सचिव (१८९५-१९०२)