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भाषण: समाचारपत्र-कानूनके विरोध में

 

अबतक यह प्रेस-कानून ऊँचे दर्जेकी पत्रकारिताकी हदतक निर्दोष और निरापद माना जाता था; वस्तुतः सरकारने जब इस कानूनको मंजूर किया तब वाइसरॉय और गवर्नर जनरलकी परिषद्के सदस्योंको यही वचन दिया गया था। सदस्योंने ऐसा वचन लेकर ही इस कानूनको स्वीकार किया था। उन्हें यह आश्वासन दिया गया था कि इस कानूनका प्रयोग केवल अपराधी पत्रकारोंके विरुद्ध ही किया जायेगा। किन्तु ‘न्यू इंडिया’ के मामलेमें अब जो-कुछ घटित हुआ है उससे कहा जा सकता है कि यह वचन एक भ्रम था। सरकार द्वारा श्रीमती एनी बेसेंटपर किये गये आक्रमणसे इस कानूनके सच्चे स्वरूपके सम्बन्धमें हमारा भ्रम दूर हो गया है। (हर्ष ध्वनि)। जब इस कानूनके अन्तर्गत प्रतिष्ठित पत्रकारोंपर जुल्म किया जा रहा है तब हम इससे सुरक्षित कैसे रह सकते हैं? कहा यह जाता है कि इस समय हमारी सरकार संकटकी स्थितिमें है। तो यह भी स्मरण रहे कि हम, देशके लोग भी यह कहते हैं कि जो सरकारके लिए संकटकी घड़ी है वह हमारे लिए भी संकटकी घड़ी है। (तालियाँ)। फिर भी यदि इस घड़ीमें भी सरकार हमें इन सख्त कानूनोंके शिकंजेमें जकड़ रखनेको आमादा है, तो महायुद्धके बाद हमारी क्या हालत होगी। तब क्या हमारा भविष्य इन देवताओंकी मुट्ठीमें ही है। (हँसी)। क्या हम अपनी इस स्थितिको उदासीन होकर सहन करनेके अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते हैं? हम इसे ही अपना कर्त्तव्य मान लें और यह सोचकर हिम्मत रखें कि हमारी वर्तमान अवस्था भविष्यमें सुधरेगी अवश्य, सुधरनी चाहिए। मैं इन सभाओं और प्रस्तावोंमें विश्वास नहीं करता। (हँसी)। सभाएँ करना और उनमें प्रस्ताव पास करना केवल समयकी बरबादी है। किन्तु हम और कर भी क्या सकते हैं? हम पराधीन लोग किसी मामले में अपनी राय दर्ज करानेके अलावा अन्य कुछ नहीं कर सकते। इसीलिए मैं आपका निमन्त्रण पाकर यहाँ आया हूँ। मैं यह अनुभव करता हूँ कि इस मामलेमें कुछ किया जाना चाहिए, कुछ ऐसा किया जाना चाहिए जिससे हमारी शिकायत सरकारके कानों तक पहुँच सके। (तालियाँ)। हम इस विषयमें अपनी भावनाएँ प्रकट करनेकी दृष्टिसे यहाँ जो कुछ भी कहें, यह एक असंदिग्ध तथ्य है कि हम इस अत्याचारपूर्ण कानूनके कारण अपने मनोंमें वस्तुत: जितना अनुभव करते हैं उसका सौवाँ भाग भी व्यक्त नहीं कर सकते। क्या हम अखबार पढ़ते हैं? हाँ, हम अखबार पढ़ते हैं; किन्तु क्या आपको निश्चय है कि आप सम्पादकके वास्तविक विचार पढ़ते हैं? मैं समझता हूँ, नहीं। लेखकोंके स्वतन्त्र विचार प्रकाशित नहीं किये जाते। जो-कुछ प्रकाशित किया जाता है, वह कुछ और ही होता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अखबारोंमें प्रकाशित शब्दोंका अर्थ उलटा लगाना ठीक है। (हँसी)। मैं कोई अत्युक्ति नहीं कर रहा हूँ। मैं स्वयं कई वर्षातक एक अखबारका सम्पादक रहा हूँ; इसलिए अपने निजी अनुभवसे बता सकता हूँ कि सम्पादकको अपने कर्त्तव्यका पालन करते हुए किन-किन मुसीबतोंमें से गुजरना पड़ता है। समाचारपत्रों पर कुछ नियन्त्रण रखना आवश्यक है, मैं इस तथ्यपर बहस नहीं करता; किन्तु यह याद रखना चाहिए कि इस नियन्त्रणको काममें लानेमें विवेक और मर्यादाको न भुला देना चाहिए। मेरी लड़ाई तो अवांछनीय नियन्त्रणके विरुद्ध