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२०८. पत्र: सो० एफ० ऐन्ड्रयूजको

अहमदाबाद
जून ३०, [१९१६]

प्रिय चार्ली,

तोतारामको वहाँ रखना बेकार है। मैं उनसे मिल चुका हूँ। वे सहायक नहीं होंगे। गिरमिट प्रथाको तो समाप्त होना ही है क्योंकि वह अपने आपमें एक बुरी प्रथा है और गुलामीका अवशेष है। यदि यह आज ही समाप्त की जा सके तो बिना किसी भी स्वार्थका खयाल किय इसे समाप्त कर देना चाहिए।

सस्नेह, मोहन

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल अंग्रेजी पत्र (सी० डब्ल्यू० ५७३४) से।

सौजन्य: राजमोहिनी रुद्र, इलाहाबाद।

२०९. रेलके यात्री[१]

[जुलाई २६, १९१६ से पूर्व][२]

इस बातमें किसीको सन्देह नहीं है कि रेलके यात्रियोंको बहुत तकलीफें उठानी पड़ती हैं। इनमें से बहुत-सी तकलीफोंका उपाय स्वयं हमारे ही हाथमें है। भारत में चारों ओर एकताकी लहर उठ रही है। उसका उपयोग करनेसे बहुत-सी तकलीफें दूर हो सकती हैं। इस लेखमें उन्हें दूर करनेके सम्बन्धमें कुछ सुझाव दिये जाते हैं। हमारी प्रार्थना है कि जिनके हाथमें यह लेख पहुँचे वे इसे ध्यानपूर्वक पढ़े और जो लोग स्वयं न पढ़ सकते हों उन्हें पढ़कर सुनायें। पाठक सहज ही समझ सकते हैं कि कागज और छपाईका खर्च किसी परोपकारी पुरुषने दिया होगा। पर इसे समझते हुए भी मुफ्त मिलनेके कारण लेखको तुच्छ मानना उचित नहीं है।

कर्मचारियोंसे मेरा यह कहना है:

यदि आप स्टेशन मास्टर हैं तो आप यात्रियोंके बहुत-से दुःख दूर कर सकते हैं।

स्वयं मुसाफिरोंसे नम्रताका व्यवहार करते हुए आप अपने मातहतोंके सम्मुख वैसा ही करनेका आदर्श रख सकते हैं।

यदि आप टिकिट बाबू हैं तो आप यह बात सहज ही सोच सकते हैं कि आप पहले और दूसरे दर्जेके मुसाफिरोंको जितना समय देते और उनका जितना ध्यान रखते

  1. १. यह १९१६-१७ में पुस्तिका रूपमें प्रकाशित हुआ था और गुजरातमें मुफ्त बाँटा गया था।
  2. २. इस पुस्तिकाका संक्षिप्त रूप २६-७-१९१६ को काठियावाड़ टाइम्स में छापा गया था।