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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पुस्तकों में ही रह जायेंगे। हम कदापि उनका पालन न करेंगे। इसके लिए हमें तुम जो चाहो सो सजा दो, हम उसे सहने के लिए तैयार हैं। जेल भेज दो तो उसे स्वर्ग मानकर हम उसमें रहेंगे। फाँसीपर चढ़नेके लिए कहो तो हँसते हुए चढ़ जायेंगे। हमपर दुःखोंकी जितनी वर्षा करो, सबको शान्तिपूर्वक सहन करेंगे, पर तुम्हारे एक रोएँको भी कष्ट न पहुँचायेंगे। हम आनन्दपूर्वक मर जायेंगे, तुमको स्पर्श तक न करेंगे पर इन हड्डियोंमें जान रहनेतक हमसे तुम्हारे मनमाने कानूनोंका पालन होना असम्भव है।”

आरम्भ यों हुआ कि एक रविवारकी सन्ध्याको जोहानिसबर्ग में एक पहाड़ीपर मैं और हेमचन्द्र नामके एक और सज्जन बैठे हुए थे। उस दिनकी याद मुझे इतनी ताजा है कि मानो यह कलकी बात हो। मेरे पास सरकारी ‘गजट’ रखा हुआ था। उसमें भारतवासियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले उल्लिखित कई कानूनोंके पास होनेकी बात लिखी हुई थी। उसे पढ़ते ही मेरा सारा शरीर गुस्सेसे काँप उठा। मैंने मनमें कहा――हें! सरकारने हम लोगोंको क्या समझ रखा है? मैंने उसी दम ‘गजट’ के उस अंशका जिसमें उक्त कानूनोंका उल्लेख था, अनुवाद कर डाला और उसके नीचे लिखा कि “मैं कभी इन कानूनोंकी सत्ता अपने ऊपर न चलने दूँगा।” यह लेख तत्क्षण ही फीनिक्सके 'इंडियन ओपिनियन' पत्रमें छपनेके लिए भेजा गया। उस समय मैंने स्वप्नमें भी यह सोचा नहीं था कि इस काममें कोई भी भारतवासी अपूर्व वीरता प्रकट करेगा अथवा सत्याग्रहका आन्दोलन इतना जोर पकड़ेगा। मैंने यह बात उसी क्षण हिन्दुस्तानी भाइयोंपर प्रकट की, जिससे बहुतेरे सत्याग्रह करनेपर तैयार हो गये। पहले युद्धमें लोग यह समझकर सम्मिलित हुए कि थोड़े ही दिनों तक कष्ट सहनेसे हमारा उद्देश्य सिद्ध हो जायेगा। दूसरे युद्धके समय आरम्भमें थोड़े ही लोग सम्मिलित हुए पर पीछे बहुतसे लोग आ मिले। बादमें श्री गोखलेके वहाँ पहुँचने पर दक्षिण आफ्रिकाकी सरकारसे समझौतेका वचन पाकर यह लड़ाई बन्द की गई। परन्तु पीछे सरकारने दगाबाजी की और अपना वचन पूरा करनेसे इनकार कर दिया। इसपर तीसरा सत्याग्रह युद्ध आरम्भ करना पड़ा। उस समय गोखलेने मुझसे पूछा था कि आन्दोलनमें कितने आदमी सम्मिलित होंगे? मैंने लिखा कि ३० से ६० आदमी तक सम्मिलित होंगे। परन्तु मुझे इतने साथी भी न मिले। हम १६ आदमियोंने ही मुकाबिला शुरू किया। हमने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि जबतक सरकार अपने अत्याचारी कानूनोंको रद न करेगी अथवा कोई और समाधानकारक समझौता न करेगी तबतक हम हरएक दण्ड भुगतेंगे, पर सिर न झुकायेंगे। हमें इस बातकी बिलकुल आशा न थी कि हमें बहुतसे साथी मिलेंगे। पर एक मनुष्यके भी निःस्वार्थपूर्वक सत्य और देश-हितके लिए आत्म-समर्पण करनेके लिए तैयार होनेका परिणाम अवश्य ही होता है। देखते-ही-देखते बीस हजार मनुष्य आन्दोलनमें सम्मिलित हो गये; उनको रखनेके लिए जेलोंमें जगह न रही और समस्त भारतका खून खौलने लगा। बहुतसे लोग कहते हैं कि यदि लॉर्ड हार्डिज़ बीच-बचाव न करते तो समझौता होना असम्भव था। पर ये लोग यह सोचना भूल जाते हैं कि उक्त लॉर्ड साहबने मध्यस्थता क्यों की। दक्षिण आफ्रिकाकी अपेक्षा कनाडाके हिन्दुस्तानी कहीं अधिक दुःख पा रहे थे। वहाँ