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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

इस पत्रके लिखनेके बाद तुम्हारी चिट्ठी मिली है। आँकड़े प्राप्त हुए। मैं देखता हूँ कि यह बड़ी मेहनतका काम है। कोई जानने योग्य खर्च अथवा आमदनी हो तो मुझे तुरन्त भेजना। बाकीकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। २० रुपये ... की माँके लिए भेजे जाते हैं। इस रकमको आश्रमके हिसाबमें चढ़ा देना चाहिए।

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (एस० एन० ६३७६) की फोटो-नकलसे।

 

३६५. अनाथाश्रमके लिए दो शब्द[१]

[जुलाई ११, १९१७ से पूर्व]

हिन्दुस्तानकी यात्रामें मैंने अनेक अनाथाश्रम देखे हैं, कुछको गहरी दिलचस्पीके साथ और कुछको सरसरी तौरपर। उनमें से कुछपर अपने विचार मैंने व्यवस्थापकों को बताये हैं। सब लोगोंको अपने विचारोंके प्रति श्रद्धा होती है; मुझे भी है। मुझे लगता है कि यदि ये विचार जनताके समक्ष रखे जायें तो इसमें बुराईकी कोई बात नहीं।

अनाथाश्रम [शब्द] की व्याख्या तो यही हो सकती है कि वह अनाथ लोगोंको आश्रय देकर सनाथ बनानेका स्थान है। इन आश्रमोंके सम्बन्धमें अनाथका विशेष अर्थ, माँ-बाप अथवा संरक्षकोंसे रहित बालक, करनेमें आया है। ये आश्रम संरक्षकोंके अभावको पूरा करनेका दावा करते हैं अथवा उन्हें करना चाहिए। अनाथाश्रम अंग्रेजी शब्द ‘ऑरफनेज’ का अनुवाद है। अनाथ शब्दका यह अर्थ होनेपर भी अनाथाश्रमोंमें बालकोंके अलावा जो अपनी आजीविका कमा सकते हैं वैसे युवकोंको लिया जाता है। और फिर अपंग, लूले, लँगड़े और अन्धोंको भी दाखिल किया जाता है। और अब तो अज्ञात माता-पिताओंके सद्यःजात बच्चोंको भी इन आश्रमोंमें स्थान मिलता है। मेरा खयाल है कि इससे उक्त उद्देश्योंकी पूर्तिमें अधिक मदद मिलती है। इन आश्रमोंको ऊपरी तौरपर देखनेसे विशेष परोपकार वृत्तिका आभास मिलता है लेकिन गहराईसे देखने के बाद पता चलेगा कि ये आश्रम व्यापारिक वृत्तिको ध्यानमें रखकर बनाये जाते हैं। जिस प्रकार कृपण व्यक्ति अपने धनपर अधिकसे-अधिक सूद लेनेकी कामना करता है और अन्तमें अधोगतिको प्राप्त होता है, अनाथाश्रमोंका भविष्य भी ठीक वैसा ही है; इसमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं। मैंने सावधानी बरतनेकी खातिर ‘भविष्य’ शब्दका प्रयोग किया है। मुझे तो वर्तमानमें ही उनकी पतितावस्था दिखाई देती है। यह व्यवस्था हमारी भयभीत मनःस्थिति और अश्रद्धाकी सूचक है। हम मान लेते हैं कि संस्थाओं के लिए हमें बड़ी मुश्किलसे धनिकोंकी मदद मिलती है। “हमें अपंगोंकी रक्षा तो करनी ही पड़ेगी। गुप्त रीतिसे पैदा हुए बच्चोंकी रक्षा भी हमें करनी ही पड़ेगी; इसलिए जो कुछ मिला है उसीसे इस कार्यको पूरा करें,” यह निकृष्ट दृष्टिकोण

  1. १. यह लेख मूलत: मराठी पत्रिका चित्रमय जगत् में प्रकाशित हुआ था। ११-७-१९१७के खेडा वर्तमान में भी इसकी चर्चा की गई थी।