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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है, वही सबकी देखरेख कर सकता है और अनुभवके आधारपर जो संशोधन-परिवर्धन उचित जान पड़ें सो सुझा सकता है। ऐसी संगठित योजनाके लिए अगर हम [अभी] तैयार नहीं हुए है तो जिन आश्रमों में अन्य आश्रमोंकी अपेक्षा अधिक जीवन है उनमें उपरोक्त पद्धति लागू की जा सकती है।

मैंने कुछ-एक आश्रमों में आग्रहपूर्वक बच्चोंको आश्रममें बनाये रखनेकी प्रथा देखी है। मुझे तो इस कदममें विचारका अभाव लगता है। जो बच्चे आश्रममें नहीं रहना चाहते वे अनाथ नहीं बल्कि स्वतन्त्र हैं। आश्रमोंका मूल्य अनाथोंकी संख्यासे नहीं बल्कि वे कितने नागरिक उत्पन्न करते हैं इस बातसे आँका जाना चाहिए।

अपंगोंके लिए जितने आश्रमोंकी आवश्यकता है उतने आश्रम विद्यमान हैं। जहाँ आवश्यकता हो वहाँ अलगसे ऐसे आश्रम खोले जाने चाहिए यह बात स्पष्ट करनेकी कोई जरूरत नहीं दिखाई देती।

अज्ञात माता-पितासे उत्पन्न बच्चोंके प्रवेशका सवाल गम्भीर है। मैं यह बात ठीक-ठीक नहीं समझ पाया हूँ कि उनको प्रवेशकी सुविधा प्रदान करनेमें क्या औचित्य है? मुझे कुछ ऐसा आभास होता है कि ऐसी सुविधा प्रदान करनेसे विषय-वृत्तिको बढ़ावा मिलता है। और फिर इसे तो किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं किया जा सकता कि येनकेन प्रकारेण उत्पन्न जीवोंको जीवित बनाये रखनेके लिए हम असंख्य प्रयत्न करें और उन्हें मरने न दें――यह भी जीवदयाके ही अन्तर्गत आ जाता है। इस प्रकारका प्रयत्न करना तो व्यर्थ ही है । ऐसा करनेमें तो एक प्रकारसे अहंताका गूढ़ भाव समाया हुआ है। मुझे तो क्षण-क्षणपर यह प्रतीति हो चली है कि जीवदयाका अर्थ इतना सरल नहीं है। पर चूँकि इस विषयसे मैं अपनी एकता मानता हूँ इसीलिए इसपर कुछ अधिकारपूर्वक लिखनेकी हिम्मत कर रहा हूँ। भूत दयाका आधार इस बात पर तो कतई अवलम्बित नहीं है कि अमुक संस्थामें जीवोंको बचाया जाये। भूत दया तो मूल――रूप में ही आत्माका गुण है। यही कारण है कि कोई जीव दयापूर्ण आत्माके सम्पर्कमें आते ही उसकी अनुकम्पाका प्रत्यक्ष अनुभव करने लगता है। जीवदयाका प्रश्न गणितका प्रश्न नहीं है। सड़े हुए आटे में असंख्य जीव उपद्रव मचाते रहते हैं; ऐसे आटेका संग्रह भूतदया नहीं माना जायेगा। बल्कि उसे गाड़कर या जलाकर नष्ट कर देनेमें ही भूतदया है; यद्यपि दोनों कामोंके कारण आटेमें के जीवोंका तो नाश ही होगा। अपने शरीरको स्वच्छ रखनेके प्रयासमें भी हम असंख्य जीवोंका नाश कर देते हैं। विशुद्ध भूतदया तो उन उपायोंकी खोज करेगी जिससे आटा सड़ने ही न पाये और न शरीर अस्वच्छ होने पाये। ठीक इसी प्रकार सच्ची भूत दया अज्ञात बालकोंके जन्मके कारणोंकी खोज करेगी और पवित्रताके विस्तारके उपाय ढूँढेगी। वह ऐसे अज्ञात जन्मका भार उठाकर उसकी अपवित्रतापर पर्दा नहीं डालेगी; इससे तो वह निर्भय हो जायेगी और प्रोत्साहन पाती रहेगी।

यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि मेरी यह टीका सहयोगी वृत्तिसे ही की जा रही है, आक्षेपमूलक नहीं। और ऐसा भी नहीं है कि यह सारी टीका सभी आश्रमोंपर लागू होती है। मेरे लेखका हेतु तो यही है कि ऐसे सारे आश्रम उच्चतम स्थितिको पहुँच पायें।