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पत्र: एस्थर फैरिंगको

तो उस अवस्था तक पहुँचना असम्भव ही है। सभी लोगोंकी प्रगति समान हो――यह कल्पनाके बाहरकी बात है। इसलिए राष्ट्र तो सदा लडेंगे ही। उनमें से कोई एक राष्ट्र ज्यादा और दूसरा कम गलतीपर होगा । कोई भी राष्ट्र पूरी तौरपर सही रास्तेपर तभी हो सकता है जब वह आत्मिक बलके आधारपर लड़े। ऐसा राष्ट्र अभी तक तो कोई है नहीं। मैं भारतसे एक ऐसा राष्ट्र होनेकी आशा करता था। लेकिन लगता है मेरी यह आशा गलत थी। भारतसे में अधिकसे-अधिक यही आशा करता हूँ कि वह दूसरे राष्ट्रोंको संयत रखनेवाले एक महान् बलकी तरह काम करे। परन्तु इसके लिए उसे अपनेमें लड़नेकी योग्यता पैदा करनी चाहिए और कष्ट-सहन करने चाहिए, तभी वह संसारको कोई संदेश दे सकता है और तभी उसकी बात कुछ सुनी भी जायेगी।

तुम्हारे और मेरे सामने एक संगत प्रश्न यह है कि वैयक्तिक रूपसे हमारा कर्त्तव्य क्या है। अपने लिए मैंने एक काम चलाऊ निष्कर्ष यह निकाला है: ‘कोई भी कारण क्यों न हो मैं किसीकी हत्या नहीं करूंगा; यदि उसकी इच्छाका प्रतिरोध करनेमें मुझे अपना जीवन होम करना पड़े तो मैं उसके हाथों अपनी मृत्यु पसंद करूँगा।’ मैं हरएकको ऐसी ही सलाह दूँगा। परन्तु जिसके बारेमें मुझे मालूम हो कि उसमें इच्छाशक्ति बिलकुल है ही नहीं, उसे मैं इच्छाशक्तिका प्रयोग करते हुए संघर्षकी सलाह दूँगा। जहाँ इच्छाशक्ति नहीं, वहाँ प्रेम नहीं होता। भारतमें इतना ही नहीं कि प्रेम नहीं है, किन्तु उसमें तो पुंसत्व-हीनताके कारण घृणा मौजूद है। परले दर्जेकी असहायताके साथ-साथ, उसमें लड़ने और हत्या करनेकी भी बड़ी प्रबल इच्छा है। पहले तो संघर्ष करनेकी क्षमता पैदा करके इस इच्छाको सन्तुष्ट किया जाना चाहिए। चुननेका प्रश्न इसके बाद ही उठता है।

यह ठीक है कि जो क्षमा और प्रेम करता है, उसकी श्रेष्ठता केवल इसीसे सिद्ध हो जाती है। परन्तु बातको इस तरह पेश करनेसे एक प्रश्न उठता है : प्रेम कौन कर सकता है? एक चूहा, चूहा रहते हुए तो बिल्लीसे प्रेम नहीं कर सकता। सामान्यतया यह तो नहीं कहा जा सकता कि चूहा अपनेको बिल्लीको चोट पहुँचानेसे बचाता है। तुम जिससे भय खाते हो, उसे प्रेम नहीं कर सकते। भयसे मुक्ति पाते ही तुम अपना मार्ग चुननेकी स्थितिमें आ जाते हो चोट करना या हाथ रोकना। हाथ रोकना इस बातका प्रमाण है कि मनुष्यकी आत्मा चेत गई है; और चोट करना शारीरिक बलका प्रमाण है। आत्माकी शक्तिका प्रदर्शन तभी होता है जब चोट करनेकी क्षमता मौजूद हो। इसका अर्थ यह नहीं कि हमें शारीरिक रूपसे अपने विपक्षीके मुकाबले अधिक बलशाली होना चाहिए।

इस पत्रसे पूरा सन्तोष नहीं होगा, परन्तु मेरा खयाल है कि तुम मेरी तर्क-पद्धति तो समझ ही लोगी। परन्तु ऐसे मामलोंमें मात्र प्रार्थना ही मार्ग है।

सस्नेह,

बापू

[अंग्रेजीसे]
माई डियर चाइल्ड