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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्वशासित राष्ट्र बनानेकी माँगसे जोड़ लेते और यद्यपि मैं केवल नौकरशाहीकी हुकूमतको हटाने के लिए काम करती हूँ और यह आशा करती हूँ कि अनेक अंग्रेज भी भावी उत्तरदायी सरकारको चलानेमें सहायता करेंगे; फिर भी यही कहा गया होता: “आप जिस चीजको लाना नहीं चाहतीं उसकी बात क्यों करती है?” किन्तु श्री गांधीपर इस प्रकारके हेतुका आरोप नहीं किया जा सकता, क्योंकि उन्होंने तो स्पष्ट कहा था: “आप स्वराज्यके योग्य नहीं हैं।” उन्होंने छात्रोंसे कहा था, “आप मेरी बातोंसे यह समझनेकी भूल न करें कि आप स्वराज्यके योग्य हैं। यदि मैं यह समझता कि आप तैयार हैं तो मैं प्रसन्नतापूर्वक तोपोंके सामने जाता और अपने प्राण दे देता।” परन्तु यह याद रखना चाहिए कि जब श्री गांधी यह बात कहते हैं तब उनका आशय यह नहीं होता। किन्तु यही बात मैं कहती तो उसका अर्थ युद्ध होता। वे सशस्त्र सैनिकोंके विरुद्ध एक ऐसी भीड़के अभियानका नेतृत्व कर चुके हैं, जो मरनेके लिए तैयार थी, मारनेके लिए नहीं, उनका विरोध सदा शान्तिपूर्ण रहा है। उन्होंने वीरतापूर्वक कष्ट सहे हैं, कष्ट दिये कभी नहीं। इसीलिए मैं कहती हूँ कि उनके सम्बन्धमें अन्य सक्रिय राजनीतिज्ञोंकी तरह राय कायम नहीं की जा सकती, उन्होंने अपने और अपने साथियोंके जीवनको खतरेमें डाला है, किन्तु अपने विरोधियोंके लिए कभी खतरा पैदा नहीं किया है।

जिस देशमें “अराजकतावाद” बम फेंकनेका अर्थ देता हो, उसमें स्पष्ट शब्दों में “मैं अराजकतावादी हूँ” कहना नासमझी है। श्री गांधी टॉल्स्टॉय की तरह ‘दार्शनिक अराजकतावादी’ हैं; वे उनसे बहुत मिलते-जुलते हैं। श्री गांधीने जिस अर्थमें इस शब्दका प्रयोग किया है उस अर्थमें यूरोपके अनेक अत्यन्त उदात्त और शुद्ध लोग――स्त्री और पुरुष――अराजकतावादी हैं। प्रिंस क्रोपाटकिन, एडवर्ड कार्पेंटर, वॉल्ट ह्विटमैन इसी विचार-शृंखलाके लोग हैं। वे सच्चे रहस्यवादी हैं और उनका मार्गदर्शन उनके अन्तरमें स्थित प्रभु करता है। उन्हें किसी बाहरी कानूनकी आवश्यकता नहीं होती। ‘मद्रास मेल’ प्रत्यक्षतः श्री गांधीकी तुलना टॉल्स्टॉयसे करनेपर झुंझला गया है। किन्तु साहित्यिक दृष्टिकोणको छोड़ दें तो दोनोंमें श्री गांधी ही महान्तर हैं। टॉल्स्टॉय किसानका जीवन बिताते थे और जूते बनाकर अपना गुजारा करते थे। गांधीका जीवन भी वैसा ही है और फिर वे अपने समाजके काममें लगे रहते हैं। टॉल्स्टॉयसे रूसी सरकार इसी प्रकार घृणा करती थी जिस प्रकार दक्षिण आफ्रिकाकी सरकार गांधीसे। किन्तु गांधीने अपने लोगोंके लिए कष्ट उठाया है, जब कि टॉल्स्टॉयने लोगोंके लिए कभी कष्ट नहीं उठाया। टॉल्स्टॉय बहुत दूर रहते हैं, इसलिए आंग्ल-भारतीय उनकी प्रशंसा कर सकते हैं; और चूँकि गांधी समीप रहते हैं, उन्हें गालियाँ दी जाती हैं। दोनों ही मनुष्य दिव्य सन्देश-वाहक हैं और दूरस्थ लोग उनकी प्रशंसा करते हैं।

मैं अपने १८९४ के भाषणको, जो मैंने उस वर्ष मद्रासके कांग्रेस अधिवेशनमें दिया था, उलट-पुलट करके देख रही थी। यह विचित्र बात है कि इसमें दिव्य सन्देशवाहकके सम्बन्धमें कही गई बातें अराजकतावादकी दार्शनिक कल्पनापर लागू होती है जब किसी दूरस्थ सुवर्णयुगमें राज्यहीन राज्य होगा और जब कोई अपने भाईको कुछ नहीं सिखायेगा, बल्कि सभी लोग ईश्वरके सिखाये हुए होंगे। टॉल्स्टॉय, गांधी, कार्पेन्टर-जैसे दिव्य सन्देशवाहक उस सुदूर भविष्यके आदर्शकी घोषणा करते हैं; किन्तु