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परिशिष्ट

बाध्यताकी बातको समाप्त कर देना चाहते हैं, लम्बे करारोंसे उसे कायम रखनेमें सहायता मिलेगी।

हम सामान्यतः किसी बाहरी सत्ता द्वारा फसल विशेषके लिए न्यूनतम दामोंके नियत किये जाने के विरुद्ध हैं, क्योंकि ऐसे दामोंके अधिकतम दामोंके रूपमें परिणत हो जानेकी प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। किन्तु नील उद्योगके पिछले इतिहासको देखते हुए, हमारा विश्वास है कि पहले कुछ वर्षोंमें किसी तरहका संरक्षण देना जरूरी होगा। इसलिए हम सिफारिश करते हैं कि बिहार नील बागान-मालिक संघ नीलके न्यूनतम भाव डिवीजन कमिश्नरकी मंजूरीसे बाँधे और यह सावधानी तबतक जारी रखी जाये जबतक स्थानीय सरकारको उसे अनावश्यक हो जानेका विश्वास न हो जाये।

नीलकी खेतीसे मुक्ति

९. पिछली शताब्दीके अन्तिम दशकमें जर्मनीमें कृत्रिम नील बनने लगा और वहाँकी पेढ़ियाँ कुदरती रंगकी अपेक्षा उसे सस्ता बेचने लगीं। इसका बिहारके नील-उद्योगपर गहरा असर हुआ। कुदरती रंगका दाम लगातार घटता गया और यद्यपि उत्पादन-व्यय कम करने और उत्पादन बढ़ानेके प्रयत्न किये गये (जैसे जावासे नीलका अच्छा पौधा लाया गया जिससे प्रति एकड़ ज्यादा रंग निकलता था) किन्तु उनमें जो सफलता मिली वह नगण्य थी। एक-एक करके नीलकी कोठियाँ कृत्रिम रंगसे स्पर्धा कर सकनेकी आशा त्यागती गईं और अन्य उपायोंकी ओर ध्यान देने लगीं जिनमें किसानोंको नीलकी खेतीसे मुक्त करनेका किसी-न-किसी रूपमें हर्जाना लेना मुख्य था।

जिलेके उत्तरी भागमें दो कोठियोंने नीलकी खेती करानेके बजाय नियत मात्रामें धान लेना आरम्भ किया; किन्तु यह प्रथा सरकारने पसन्द नहीं की, इसलिए वह अभी हालमें छोड़ दी गई है। कुछ अन्य कोठियोंने नीलके बजाय चीनी या जई लेनेका तरीका अपनाया। हमें बताया गया है कि बाड़ा कोठीने कुछ किसानोंसे तीन कट्ठे नीलके बजाय डेढ कट्ठे चीनीके साटे किये हैं। मलहिया, बैरिया और कुरिया कोठियाँ नीलके बजाय सीमित मात्रामें जईकी खेती करवाती हैं। १९०८के अन्तमें उपद्रवोंके बाद सरकारके निर्देशसे बिहार नील बागान-मालिक संघने सन् १९१० में एक विनियम बनाया था जिसमें साटेके अन्तर्गत नीलके सिवा कोई दूसरी फसल बुवानेकी साफ मनाही की गई है। ये उपद्रव नीलकी चार कोठियोंमें हुए थे जिनमें से तीन मलहिया, बैरिया और कुरियाकी कोठियाँ थीं। यह नियम जिन कोठियोंकी प्रथाको ध्यान में रखकर खास-तौरसे बनाया गया था वे उसका उल्लंघन करती रहीं; हमारी समझमें यह खेदजनक है।

१९११में नीलकी खेती बन्द करनेका आम आन्दोलन शुरू हुआ जो १९१४ में महायुद्धके आरम्भ तक अबाधित रूपसे चलता रहा। उस समय नीलके भाव बहुत बढ़ जानेसे नील बनानेमें फिर लाभ होने लग गया था। सामान्यतः परिवर्तनके दो अलग-अलग तरीके अपनाये गये। कुछ किसानोंने लगान बढ़ानेके करार कर दिये। यह तरीका साधारणतः शरहबेशी कहा जाता था। कुछ किसानोंने या तो एक मुश्त नकद रुपया देकर नीलकी खतीसे मुक्ति पाई या उसके लिए उतनी रकमका तमस्सुक लिख दिया