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३४१. पत्र: एक साथीको

[नडियाद]
जुलाई १०, १९१८

तुम्हारे बारेमें मुझे डर लग रहा है। जिस तरह तुम्हारे साथ जूझ रहा हूँ उसी तरह हरिलालके साथ भी जूझ रहा हूँ। हरिलाल कहता है कि मैंने जो उपाय सुझाया है वह क्रूरतापूर्ण है। मै देखता हूँ कि वह सही नहीं है, तब मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि वह सच कह रहा है। तुम्हारे मामलेमें भी मेरी यही दशा हो गई है। तुम्हारे सम्बन्धमें भी मैं [लोगोंमें] नाराजी देखता हूँ। तुम्हारे ऊपर ढोंग करनेका आरोप लगाया गया है। उस बार तुम मेरे आदर्शोंकी चर्चा ले बैठे। अब मुझे लिखते हो कि तुम...[१] गये उसमें तुम्हारा समय व्यर्थ ही गया। तुमने मुझे धोखा दिया है और...[१] को भी तुमने गुमराह किया। तुमने उसे यह सुझाया कि मुझे उसे चिंचवड भेजना चाहिये। उसने मुझसे यह कहा। मैंने उसकी बातको महत्व नहीं दिया। अब इन बातोंको याद करता हूँ तो काँप जाता हूँ। तुम्हें क्या लिखूँ? मैं तुम्हारा न्याय नहीं कर सकता। तुम्हें झूठा कहते हुए मुझे दुःख होता है। यदि तुम्हारे जैसा व्यक्ति इतना ढोंग कर सकता है, इतना कामचोर हो सकता है तो फिर किसका विश्वास किया जाय? यदि तुमने ढोंग नहीं किया तो मेरे मनपर अकस्मात् ऐसी छाप क्यों पड़ी?...[१] का दोष नहीं है।...[१] निमित्तमात्र है। मेरा सन्देह जब शुरू हुआ तब तुम...[१]में नहीं टिके। ज्योंही सन्देह हुआ त्योंही मैंने उसे दबा दिया;...[१] ऐसा नहीं कर सकता, ऐसा सोचकर मैं इस बातको भूल गया। परन्तु मेरा समाधान नहीं हुआ। यह सन्देह और तुम्हारे साथ हुई बातचीत मुझे याद आती है और मैं बहुत असमंजसमें पड़ जाता हूँ। मुझे तुम इस दुःखसे उबारो। या तो अपनी निर्दोषिता पूरी-पूरी सिद्ध करो या शुद्ध पश्चात्ताप करो और सरल बनो। तुम्हारे विषयमें सन्देहकी यह स्थिति असह्य है। तुमपर मैंने बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँधी थीं। भारतकी भावी सत्याग्रही सेनामें मैंने तुम्हें अग्रस्थान दिया था। यह सब अब नष्ट-भ्रष्ट हो गया है।

[गुजरातीसे]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।
सौजन्य: नारायण देसाई
 
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