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तरह हम देखते हैं कि इस खण्डसे सम्बन्धित अवधिमें राजनीतिक क्षेत्र में गांधीजीकी प्रमुख चिन्ताका विषय खिलाफत आन्दोलन ही था।

गांधीजीने अपने-आपको खिलाफत आन्दोलनके साथ एकरूप बना लिया था। इसमें उनके उद्देश्य और औचित्य दोनोंको लेकर काफी शंकाएँ उठाई गई। आलोचकोंने कहा कि एक तर्क-असंगत धार्मिक भावनाका सहारा लेकर गांधीजी हिन्दू और मुसलमानोंको अंग्रेजोंके खिलाफ एक करना चाहते हैं और इसमें उनका मंशा ब्रिटिश सरकारको आफतमें डालना है। गांधीजीने बड़े धैर्यके साथ इन शंकाओंका उत्तर दिया: "सरकारोंको या किसी अन्य व्यक्तिको परेशान करना मेरे सिद्धान्तके विरुद्ध है।" (पृष्ठ ३८४ )"मैं पूरी शक्तिसे इस मामलेमें इसीलिए पड़ा हूँ, क्योंकि ब्रिटेनके वादे, शुद्ध न्याय और धार्मिक भावना सभी बातोंका इसमें संयोग है। में ऐसी परिस्थितिकी कल्पना कर सकता हूँ जिसमें विशुद्ध न्याय एक बात कहे और अंध-धार्मिक भावना उससे बिलकुल उलटी। उस हालतमें मुझे इस धार्मिक भावनाका ही विरोध करना चाहिए और विशुद्ध न्यायका पक्ष लेना चाहिए।" (पृष्ठ ४४७) उन्हें इस बातका पूरा भरोसा था कि मुसलमान खिलाफतके मामलेमें सही मार्गपर है। मुसलमानोंकी धार्मिक भावना कहती थी कि आर्मीनिया और अरब देशोंकी आत्मनिर्णय सम्बन्धी बात तभी मानी जा सकती है जब वे टर्कीके सुलतानकी प्रभुसत्ता स्वीकार करें। गांधीजीकी व्याख्याके अनुसार अंग्रेजोंने जो वादे किये थे उनमें मुसलमानोंकी इस धार्मिक भावनाका खयाल रखनेकी बात निहित थी। इतना तो बिलकुल ही ठीक है कि इस दलीलका मुख्य उद्देश्य मध्यपूर्व में मित्र-राष्ट्रोंके राजनीतिक इरादोंपर पर्दा डालना था और उस हदतक यह दलील कोई ईमानदारीकी दलील नहीं थी। इसलिए गांधीजीने महसूस किया कि नैतिक और राजनैतिक दोनों दृष्टियोंसे ब्रिटिश-सरकार और भारतीय मुसलमानोंमें न्याय भारतीय मुसलमानोंके पक्षमें है।

दूसरा आक्षेप यह था कि भारतीय मुसलमानोंकी उस धार्मिक भावनाका समर्थन करके, जिसका सम्बन्ध देशसे बाहरकी शक्तियोंके साथ था, गांधीजी सारे देश और विशेषतः हिन्दुओंको गलत रास्तेपर ले जा रहे हैं। गांधीजीने इसका जवाब देते हुए कहा कि यदि मुसलमानोंकी माँग मूलतः गलत नहीं है, तो पड़ोसी-धर्मके नाते हमें उनसे सहानुभूति प्रकट करनी चाहिए और उनकी माँगका समर्थन करना चाहिए। खिलाफतसे अपने सम्बन्धको स्पष्ट करते हुए जून १९२० को उन्होंने वाइसरायको लिखा: "मैं समझता हूँ कि एक ऐसे कट्टर हिन्दूके नाते, जो अपने मुसलमान देशभाइयोंके साथ घनिष्ठतम मैत्री-सम्बन्ध रखनेका इच्छुक है, मैं यदि इस संकटकी घड़ीमें उनका साथ न दूँ तो भारत-माताकी अयोग्य सन्तान सिद्ध होऊँगा। मेरी नम्र सम्मतिमें उनका पक्ष न्याय्य है।" (पृष्ठ ५४७) इस तरह हम देखते हैं कि गांधीजीके विचारमें खिलाफतका प्रश्न हिन्दू-मुस्लिम एकताके प्रश्नसे जुड़ा हुआ था। फरवरी १९२० को उन्होंने 'यंग इंडिया' में लिखा: "तब हिन्दू-मुस्लिम एकता किस बातमें निहित है और उसको बढ़ानेका सबसे अच्छा तरीका क्या है? उत्तर सीधा-सादा है। वह इस बातमें निहित है कि हमारा एक समान उद्देश्य हो, एक समान