सियोंके वर्द्धमान दलको नेतृत्व दें। आप उन्हें सहानुभूति दीजिए, उनके दिलकी धड़कनको पहचानिए, उसे सही मार्ग दीजिए, क्योंकि इन लोगोंको तर्कबुद्धिसे और इनकी उच्चात्माको जागृत करके समझाया-बुझाया जा सकता है। अगर आप ऐसा करेंगे तो देखेंगे कि आपके सामने देशकी पुकारपर मर मिटनेवाले लोगोंका कैसा अनुशासित दल तैयार हो गया है। लेकिन अगर वे अपने-आपको उपेक्षित अनुभव करते हैं, अगर उन्हें ऐसा लगता है कि ये पुराने लोग हमारी जरूरतोंको धैर्यपूर्वक सुनने के लिए तैयार नहीं हैं, ये हमारी कोई सहायता नहीं करेंगे तो हो सकता है कि उनमें निराशाका भाव आ जाये और वह फिर निराशोन्मादका रूप ले ले जिसके परिणाम भयंकर विनाशलीलाके रूपमें प्रकट हो सकते हैं। मुझे तो याद नहीं आता कि भारतको सत्याग्रहके मार्गपर ले चलनेका इससे कोई और अच्छा अवसर कभी आया हो--सत्याग्रहका मार्ग अर्थात् वह मार्ग जिसपर चलने में पराजयका कोई सवाल ही नहीं उठता और जिसपर चलने में अगर किसीसे कोई गलती होती भी है तो उससे किसी औरकी नहीं, बल्कि स्वयं गलती करनेवाले की ही हानि होती है। हाँ, जब मैं सत्याग्रह कहता हूँ तो उसका मतलब आवश्यक रूपसे सविनय अवज्ञा ही नहीं है, बल्कि सत्य और अहिंसा है।
यंग इंडिया, २४-३-१९२०
९०. न्यायालयकी मानहानि
अहमदाबादके जिला-जजके सत्याग्रही वकीलोंसे सम्बन्धित पत्र और तत्सम्बन्धी मेरी टिप्पणीके प्रकाशनके सिलसिले में 'यंग इंडिया' के सम्पादक और प्रकाशकके विरुद्ध जो मुकदमा चलाया गया था उसकी सुनवाईकी लोग काफी समय से प्रतीक्षा कर रहे थे। आखिर सुनवाई हुई और निर्णय सुना दिया गया।[१] सम्पादक और प्रकाशक, दोनोंकी न्यायालयकी ओरसे कड़ी भर्त्सना की गई है। लेकिन न्यायालय हममें से किसीको कोई सजा देनेकी सूरत नहीं निकाल सका। और अब अगर में इस निर्णयपर विचार कर रहा हूँ तो उसका कारण इतना ही है कि मैं सत्याग्रहीके नाते इससे एक नैतिक निष्कर्ष निकालना चाहता हूँ। जिन मित्रों ने सिर्फ मित्रताके वशीभूत होकर हमें न्यायालयकी ओरसे जिस तरहसे क्षमा-याचना करने को कहा गया था उस तरहसे क्षमा-याचना कर लेनेकी सलाह दी थी, उन्हें मैं आश्वस्त कर देना चाहता हूँ कि मैंने उनकी सलाह किसी के कारण अस्वीकार नहीं की; उसका कारण तो यह था कि वहाँ सवाल एक सिद्धान्तका था। एक पत्रकारकी स्वतन्त्रताकी रक्षा करते हुए कानूनका भी सम्मान करना था। कानूनको जिस रूपमें मैंने समझा उसके अनुसार मैंने अदा-
- ↑ यह निर्णय १२ मार्च, १९२० को दिया गया था। सुनवाईके गांधीजी द्वारा प्रस्तुत विवरणके लिए देखिए "क्या यह न्यायालयकी मानहानि थी?", १०-३-१९२०।