सैन रेमो सम्मेलनके निर्णय के सम्बन्धमें जो तार आया है वह बहुत ही क्षोभ- जनक है। इस निर्णयसे मुसलमानोंके मनमें अशान्ति पैदा होना अवश्यम्भाषी है। फिर भी मैं आशा करता हूँ कि मुस्लिम नेता इससे न तो हतोत्साह होंगे और न नाराज ही इस निर्णयके साथ जिन बातोंका सम्बन्ध है वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। अतः यह नितान्त आवश्यक है कि अधिक से अधिक आत्मसंयम बरता जाये। मेरा अब भी यही विश्वास है कि असहयोग ही वह एकमात्र मार्ग है, जिसके द्वारा भारत ठीक अपने हृदयपर किये गये इस गहरे आघातकी पीड़ाको संयत रूपमें व्यक्त कर सकता है। मैं जानता हूँ कि यह मार्ग बहुत ही कठिन और कंटकाकीर्ण है, परन्तु साथ ही मुझे यह विश्वास भी है कि इस रास्तेपर चलकर अपने पशु-बलके मदमें चूर मित्र- राष्ट्रोंसे न्याय प्राप्त किया जा सकता है। मैं जानता हूँ कि हिंसाका उत्तर हिंसा से देनेकी इच्छाको दबाना प्रायः असम्भव है, परन्तु मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि यदि हमने तनिक भी हिंसा की तो वह न केवल और भी उग्ररूप धारण करके उलटे हमें ही अपना शिकार बनायेगी, वरन् इससे इस्लामकी वर्तमान सारी आशाएँ चूर-चूर हो जायेंगी। इसके विपरीत अगर पूरी शान्तिके साथ असहयोग किया जाये तो निस्सन्देह मित्र-शक्तियोंको, टर्कीके सम्बन्धमें वे ऐसा जो भी निर्णय करें जिसे अन्यायपूर्ण और महामहिमके मन्त्रियों द्वारा दिये गये गम्भीर वचनोंके विरुद्ध सिद्ध किया जा सके, उसमें रद्दोबदल करने को मजबूर होना पड़ेगा। जो लोग असहयोगमें विश्वास नहीं करते उनसे मेरा यही नम्र निवेदन है कि 'यदि आप असहयोगके इस कार्यक्रमको विफल करने में सफल हो गये और इसके बदले कोई ऐसा ठोस और निश्चित उपाय नहीं खोज पाये, जो विरोध-प्रदर्शन मात्र न होकर इतना अधिक कारगर हो कि उसके बलपर इच्छित फल प्राप्त हो सके, तो आप केवल हिंसाके विस्फोटको ही बढ़ावा देंगे।'
[अंग्रेजीसे]
बॉम्बे क्रॉनिकल, २९-४-१९२०
१. टर्कीके साथ सन्धिकी शर्तोंपर यह वक्तव्य टाइम्स ऑफ इंडिया, २९-४-१९२० और
यंग इंडिया, ५-५-१९२० में भी प्रकाशित हुआ था।
२. टर्कक साथ सन्धिकी शर्तोको अन्तिम रूप देनेके लिए २६ अप्रैल, १९२० को बुलाया गया मित्र राष्ट्रों का सम्मेलन। इसमें तथ पाया गया था कि स्मरना और थ्रेसके इलाके ग्रीसवालोंको दे दिये जाये और राष्ट्रसंघकी ओरसे मेसोपोटामिया और फिलस्तीनके शासनकी जिम्मेदारी इंग्लैंड सँभाले तथा सीरिया और साइलेशिया के शासनका दायित्व फ्रांस सँभाले। देखिए परिशिष्ट १।