हूँ। वहाँ पाँच-छः दिन लगेंगे। ब्यौरेवार पत्र वहाँसे वापस आनेके बाद ही भेज सकूँगा। इस बीच एक-दो पत्र भेजूंगा, लेकिन चन्देके लिए तो अपील अवश्यमेव जारी कीजिएगा। में गाँवोंमें खाली हाथ फिरूँ, सो ठीक नहीं। यदि हो सका तो यहाँसे चावलोंसे भरी हुई एक-दो गाड़ियाँ भी ले जाऊँगा और जहाँ खास जरूरत होगी वहाँ उसका उपयोग करूंगा। तथापि आप आजसे ही पैसोंका बन्दोबस्त करनेकी दिशामें प्रयत्न कीजिएगा।
उड़ीसाके ही एक सज्जनका पत्र भी है, जिसमें वे लिखते हैं:
दावा नामक एक गाँव है। उसमें ५९ परिवार थे । इस स्थानपर अकाल और बाढ़ आनेसे बहुत नुकसान हुआ । उपर्युक्त गाँव ४११ व्यक्ति थे, जिनमें ११ बच्चे थे; वे सब दूध न मिलने के कारण काल-कवलित हो गये। अब कुल ३०३ व्यक्ति गाँवमें बचे हैं और उनके शरीर भी हाड़-पिंजर मात्र रह गये हैं। कुल मिलाकर ५८ व्यक्तियोंकी मृत्यु हुई है। इन लोगोंको भोजन तो कदाचित् ही मिलता है, कपड़े भी नहीं। अनेक नग्नावस्थामें घूमते हैं। कुछ स्त्रियाँ कपड़ा न होने के कारण घरके बाहर ही नहीं निकल सकतीं। कुछ लोग घास, पत्ते खाकर गुजारा करते हैं
जैसे-जैसे विशेष समाचार मिलेंगे में पाठकोंको उनसे अवगत कराता रहूँगा। जो समाचार मैंने ऊपर दिये हैं उनसे मदद करनेकी न्यायोचितता तो सिद्ध हो ही जाती है। मुझे उम्मीद है कि सब लोग यथाशक्ति पैसा भेजेंगे। कितनी रकम चाहिए,मैं इस समय इसके निश्चित आँकड़े नहीं दे सकता। तथापि जब मैं लोगोंसे यथाशक्ति देनेका अनुरोध कर रहा हूँ तब आँकड़े देनेकी जरूरत भी नहीं रह जाती। जो खर्च हो उसका हिसाब रखनेके बारे में भाई अमृतलाल ठक्करको लिख चुका हूँ। हिसाब पूरा प्रकाशित होगा। जो अपने आपको भारतीय मानने में गर्वका अनुभव करते हैं,उनका धर्म है कि हिन्दुस्तानका यदि कोई भी अंग क्षीण हो जाये तो हम कष्टका अनुभव करें।यदि यह विचार ठीक है तो उड़ीसाके दुःखसे हम दुःखी कैसे न हों?
[गुजरातीसे]
नवजीवन, ९-५-१९२०