वस्त्रका, विदेशी मालका अथवा देशी मिलके बने वस्त्रका उपयोग करते हों वहाँ-वहाँ खादीका उपयोग करने लगें। तभी हम भारतमें कपड़ेकी कमीको पूरा कर सकेंगे। इसलिए होना तो यह चाहिए कि जो लोग अनेक प्रकारके और जरूरत से ज्यादा वस्त्र पहनते हैं वे अपनी इस जरूरतको घटा दें जिससे कपड़ेपर जो दबाव है वह कम हो जाये; इसके सिवा आवश्यक कपड़ों में भी जहांतक बने वे खादीका ही उपयोग करें। इससे गरीबोंको कपड़ा मिल सकेगा और कपड़ोंपर खर्च किये जानेवाले पैसोंका अन्य अच्छा उपयोग हो सकेगा, क्योंकि वे पैसे दो-चार व्यक्तियोंको मिलनेके बजाय हजारों में वितरित होंगे। खादी तैयार करना और उसका उपयोग करना ही पर्याप्त नहीं है; हमें इसमें विवेकबुद्धिसे काम लेना चाहिए। हम खादी इस ढंगसे तैयार करें कि उसका लाभ अधिकसे-अधिक लोगोंको मिले। यह अर्थशास्त्रका सरल नियम है। इस नियम- का जहाँ उल्लंघन किया जाता है वहां परिणाम भुखमरीके अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकता। इसलिए खादीकी माँगसे ही में प्रसन्न हो जाऊँ सो बात नहीं। खादी मँगानेवालों [के नाम-पते आदि] से ही मुझे पता चल जाता है कि वे खादीका सदु- पयोग करना चाहते हैं। और फिर खादीकी खपत, स्वदेशी-भावनाके प्रति स्नेहभावकी परिचायक है। यह हमारे लिए हर्षकी बात है कि खादीकी मांग बलोचिस्तान, नीलगिरी- पहाड़ों तथा अदनतक से आई है।
लेकिन कदाचित् इससे भी अधिक सन्तोष हमें श्रीमती सरलादेवी चौधरानी तथा अत्यन्त मधुर स्वभाववाले मौलाना हसरत मोहानीकी धर्मपत्नीके अनुभवोंसे मिल सकता है। सरलादेवीको बरेली खिलाफत सम्मेलनमें जानेका निमन्त्रण मिला था, वहाँ वे तीन तारीखको गई थीं। सत्याग्रह सप्ताह में उन्हें खादीकी साड़ी पहननेका सुअवसर आया और वे उस समय अपने कर्त्तव्य के सम्बन्धमें सोच में पड़ गई। उन्होंने अपने-आपसे विचार-विमर्श किया। वे अपने एक पत्र में लिखती हैं।'
बरेली पहुँचने तथा अनुभव प्राप्त करने के बाद उन्होंने लिखा कि।
बरेलीकी प्रान्तीय परिषद में उन्होंने स्वदेशीका प्रस्ताव रखा । उस समय हिन्दी में भाषण देते हुए उन्होंने जो उद्गार प्रकट किये उनमें से कुछ एक वाक्य में यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ।"
उपर्युक्त भाषण देनेके पश्चात् चौधरानी और चौधरीजीकी तो लगभग तुरन्त कसौटी होनेवाली थी; गत बुधवारको उनके बड़े पुत्रकी शादी थी। वर-वधूके लिए कैसे कपड़े बनाए जाने चाहिए, यह प्रश्न उनके सामने उठ खड़ा हुआ। पंडित रामभजदत्त इस सम्बन्धमें पत्र में लिखते हैं कि:"दोनोंके लिए जो वस्त्र बनाये गये हैं वे स्वदेशी रेशमके ही हैं। यद्यपि रेशमका भाव तनिक ज्यादा है तथापि चीन, जापान अथवा अन्य विदेशी कपड़ेका हमने कोई वस्त्र नहीं बनवाया है।"
[गुजरातीसे]
नवजीवन, २३-५-१९२०
१, २ और ३. यहाँ उद्धृत नहीं किया जा रहा है। सम्बन्धित उद्धरणोंके लिए देखिए "स्वदेशीका उत्तरोत्तर विकास , १९-५-१९२०।