(२) मैं नहीं मानता कि तुर्क लोग किसी भी तरह कमजोर, अक्षम अथवा नृशंस हैं। हाँ, वे असंगठित अवश्य हैं और शायद उनके पास अच्छे सेनापति भी नहीं हैं। उन्हें बहुत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में लड़ना पड़ा। प्राय: देखने में आता है कि जिसके हाथसे अधिकार छीन लेनेकी इच्छा होती है उसपर यही -- अक्षमता, कमजोरी और नृशंसताके -- दोष लगाये जाते हैं। [ आर्मीनियामें ] कत्लेआमका जो दोषारोपण तुर्कीपर किया जाता है, उसके सम्बन्धमें स्वतन्त्र जाँच कमेटीके लिए प्रार्थना की गई थी, पर वह कभी स्वीकार नहीं हुई। किसी भी सूरतमें अत्याचार न होने पायें, इसकी गारंटी तो ली ही जा सकती है।
(३) मैं पहले ही कह चुका हूँ कि यदि भारतीय मुसलमानोंमें मेरी दिलचस्पी न होती तो मैं तुर्कोंके मामलेमें उतना ही उदासीन रहता जितना उदासीन में आस्ट्रियावालों या पोलैंडवालोंके मामले में हूँ। पर भारतवासी होनेकी हैसियतसे में अपना यह कर्त्तव्य समझता हूँ कि भारतके मुसलमान भाइयोंकी यातनाओं और कष्टोंमें आगे बढ़कर हिस्सा बटाऊँ। यदि में मुसलमानोंको अपना भाई समझता हूँ और यदि उनका पक्ष मुझे न्यायोचित लगता है तो यह मेरा कर्तव्य है कि मैं अपनी शक्ति-भर संकटके समय उनकी सहायता करूँ।
(४) चौथे प्रश्नमें पूछा गया है कि हिन्दुओंको मुसलमानोंका साथ कहाँतक देना चाहिए। अतः यह बात भावना और अपनी-अपनी रायपर निर्भर करती है। मैं अपने मुसलमान भाइयोंके साथ उनकी न्यायपूर्ण माँगोंके लिए अन्ततक संकट भोगना ठीक समझता हूँ और इसलिए मैं तबतक उनका साथ देता रहूँगा जबतक मेरी रायमें जिन उपायोंका वे प्रयोग करते हैं वे उतने ही अच्छे हैं, जितना अच्छा उनका उद्देश्य है। मैं मुसलमानोंके आन्तरिक भावोंपर किसी तरहका नियन्त्रण नहीं रख सकता। मैं तो उनकी इस बातको स्वीकार करता हूँ कि खिलाफतका प्रश्न उनके लिए इस अर्थमें धर्मका प्रश्न है कि वे अपने प्राणोंकी बाजी लगाकर भी इस प्रश्नके सम्बन्धमें अपने लक्ष्यकी सिद्धिके लिए बँधे हुए हैं।
(५) असहयोग हिंसासे सर्वथा मुक्त है, इसलिए मैं उसे विद्रोह नहीं मानता। यों तो सरकारके किसी कार्यका कोई भी विरोध व्यापक अर्थमें विद्रोह ही है। उस अर्थमें उचित बातके लिए किया गया ऐसा विद्रोह वस्तुतः कर्त्तव्य है, और विरोध किस हदतक किया जाये, यह इसपर निर्भर करेगा कि कितना अन्याय हुआ और उसे कहाँतक अनुभव किया गया है।
(६) विगत वर्षका मेरा अनुभव बतलाता है कि यद्यपि कहीं-कहीं गलतियाँ अवश्य हुईं, पर सारा देश पूरी तरह नियन्त्रणके भीतर था तथा सत्याग्रहका प्रभाव देशके लिए अतिशय लाभदायक हुआ। और जहाँ-कहीं हिंसा हुई, वहाँ ऐसे स्थानीय कारण थे जिनका हिंसाको भड़कान में प्रत्यक्ष योग था। साथ-ही-साथ में यह भी कहता हूँ कि जनताकी ओरसे जितनी हिंसात्मक कार्रवाई हुई उतनी भी नहीं होनी चाहिए थी और कुछ स्थानोंपर अराजकताके जो लक्षण प्रजाने दिखाये उन्हें भी नियन्त्रणमें रहना चाहिए था। जो गलत अनुमान मैंने उस समय किया था, उसको मैंने बहुत बार स्वीकार किया