उन्नत हो जायेगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती और तब स्वराज्य तो हस्ता- मलकवत् हो जायेगा।
श्रीमती सरलादेवीके एक मुसलमान नौकरने उनसे कुछ बात कही, और उन्होंने मुझसे कही। उसको यहाँ प्रस्तुत करते हुए तथा पाठकोंसे उसपर मनन करनेका अनुरोध करते हुए मैं इस चिट्ठीको समाप्त करूँगा। सरलादेवीको अनेक स्त्री-पुरुष माताजी कहकर सम्बोधित करते हैं। उस नौकरने कहा: "माताजी, महात्माजी सब स्त्रियोंके सामने जो चरखा कातनेकी बात करते है सो बिना सोचे-समझे नहीं करते। वे तो ईश्वरभक्त है और यह मानते हैं कि उसके द्वारा हिन्दुस्तानकी स्त्रियाँ अपने धर्मकी रक्षा कर सकती हैं, यह सत्य है इसीसे वे ऐसा करते हैं।" श्रीमती सरलादेवीने यह कहते हुए कि यह नौकर भक्त और भला व्यक्ति है स्वदेशी सम्बन्धी उसके विचारोंको मेरे सम्मुख रखा। अज्ञानी कहा जानेवाला पुरुष भी इतना समझदार हो सकता है, यह देख सरलादेवी चकित हो गई। मुझे खुशी तो हुई लेकिन आश्चर्य नहीं हुआ। अज्ञानी कहलानेवाले पुरुषोंके पास मैंने ज्ञानका जितना भण्डार देखा है और उनसे मैं जितना ज्ञान प्राप्त कर सका हूँ उतना मुझे किसी औरसे नहीं मिला है।
३०. पत्र: एल० फ्रेंचको
२, मुजंग रोड
लाहौर
१५ फरवरी, १९२०
मैं अभी-अभी सरगोधासे लौटा हूँ। वहाँ मैंने अनेक व्यक्तियोंके मुखसे उस अत्याचारकी कहानी सुनी जो उनपर भरतीके दिनोंमें तहसीलदार नादिर हुसैन शाह, जिसकी १९१८में नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी गई,[१] तथा अन्य अधिकारियोंने किया था। मैं समझता हूँ कि गत युद्धके दौरान भरतीके लिए कुछ असामान्य प्रयत्न करना जरूरी था, और किसी-न-किसी तरहका नैतिक दबाव भी अवश्यम्भावी था। मेरा यह भी खयाल है कि छोटे अधिकारियोंमें कुछ हदतक उत्साहातिरेक होना ही था, और...[२]
परन्तु जो कहानियाँ मुझे कई गवाहों--स्त्रियों तथा पुरुषों दोनों--ने बार-बार सुनाई है, उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती और मुझे पूरा भरोसा है कि लोगोंपर जो जुल्म किये गये, उन्हें श्रीमान्[३] माफ करना नहीं चाहेंगे।